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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 46 चैतन्यशून्यस्य कायस्य तदर्थत्वाघटनात्। द्वितीयपक्षे तु कायानांतरभूतस्य चैतन्यस्य कायत्वात्काय एव तत्त्वोपदेशेनानुगृह्यत इत्यापन्नं, तच्चायुक्तमतिप्रसंगात्। ततो जीवार्थ एव तत्त्वोपदेश इति नासिद्धो हेतुः। जीवादनंतरमजीवस्याभिधानं तदुपग्रहहेतुत्वात्। धर्माधर्माकाशपुद्गलाद्यजीवविशेषा असाधारणगतिस्थित्यवगाहवर्तनादिशरीराद्युपग्रहहेतवो - वक्ष्यते / द्रव्यास्रवस्याजीवविशेषपुद्गलात्मककर्मास्रवत्वादजीवानंतरमभिधानं, भावास्रवस्य जीवाजीवाश्रयत्वाद्वा तदुभयानंतरं / सत्यासवे बंधस्योत्पत्तेस्तदनन्तरं तद्वचनं, आस्रवबंधप्रतिध्वंसहेतुत्वात् संवरस्य तत्समीपे ग्रहणं, सति संवरे परमनिर्जरोपपत्तेस्तदंतिके निर्जरावचनं, सत्यां निर्जरायां मोक्षस्य घटनात्तदनंतरमुपादानं / होता / अर्थात् शरीर सहित संसारी प्राणी तत्त्वोपदेश सुनने का पात्र हैं चैतन्यशून्य काय नहीं। द्वितीय पक्ष में यदि काय से अभिन्न चैतन्य का कायत्व होने से चैतन्य ही काय रूप हो गया और काय को तत्त्व के उपदेश से अनुग्रह किया जायेगा। अर्थात् आत्मा काय होने से काय को ही तत्त्वोपदेश से अनुग्रह का प्रसंग आयेगा। अचेतन काय का अनुग्रह करने के लिए तत्त्वोपदेश देना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात अचेतनत्व सामान्य होने से घट पट आदि अचेतन पदार्थों को भी तत्त्वोपदेश से अनुग्रह करने का प्रसंग आयेगा इसलिए तत्त्वोपदेश के द्वारा जीव का ही अनुग्रह किया जाता है, जीव के लिए ही तत्त्वोपदेश दिया जाता है, यह हेतु असिद्ध भी नहीं है। __ चेतन जीव के उपग्रह का हेतु होने से जीव के अनन्तर अजीव तत्त्व का कथन किया है। अर्थात जीव के अव्यवहित अजीव का कथन उपकार्य-उपकारक भाव संबंध का प्रयोजक है। अर्ज विशेष भेद पाँच हैं धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल। धर्म द्रव्य का असाधारण उपकार है जीव और पुद्गल के गमन में सहायता, अधर्म का ठहरने में सहायकत्व, आकाश का अवगाहन देना, काल परिवर्तन कराने में और पुद्गल जीव के शरीर की रचना आदि में कारण बनता है। इनका वर्णन आगे पाँचवें अध्याय में करेंगे। अजीव विशेष पुद्गलात्मक कर्म आस्रवत्व होने से द्रव्यास्रव का अजीव के अनन्तर कथन किया है अर्थात् द्रव्यास्रव पुद्गलात्मक है। अथवा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग ये भावास्रव हैं और भाव आम्रव जीव और अजीव इन दोनों के आश्रय से होता है अतः जीव और अजीव दोनों के अनन्तर आस्रव का कथन किया है। अर्थात् जीवाजीव आश्रय हैं और आस्रव आश्रयी है। आस्रव के होने पर ही बंध की उत्पत्ति होती है अत: आस्रव के अनन्तर बंध को ग्रहण किया है। आस्रव और बंध में कार्य-कारण भाव का संबंध है। अर्थात् आस्रव कारण है और बंध उसका कार्य है / आस्रव और बंध के प्रतिध्वंस (नाश) का कारण होने से इनके समीप में संवर तत्त्व को ग्रहण किया है। अर्थात् आस्रव और बंध के निरोध का कारण होने से संवर को बंध के बाद ग्रहण किया है। संवर के होने पर ही निर्जरा होती है इसलिए संवर के अनन्तर निर्जरा का कथन किया है। निर्जरा के होने पर ही मोक्ष घटित हो सकता है अत: निर्जरा के अनन्तर मोक्ष का ग्रहण है। इन
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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