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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 45 जीवादिपदानां द्वंद्ववृत्तौ यथोक्तः क्रमो हेतुविशेषमपेक्षतेऽन्यथा तन्नियमायोगात्। तत्र जीवस्यादौ वचनं तत्त्वोपदेशस्य जीवार्थत्वात्। प्रधानार्थस्तत्त्वोपदेश इत्ययुक्तं, तस्याचेतनत्वात् तत्त्वोपदेशेनानुग्रहासंभवात् घटादिवत्। संतानार्थः स इत्यप्यसारं, तस्यावस्तुत्वेन तदनुग्राह्यत्वायोगात्। निरन्वयक्षणिकचित्तार्थस्तत्त्वोपदेश इत्यप्यसंभाव्यं, तस्य सर्वथा प्रतिपाद्यत्वानुपपत्तेः। संकेतग्रहणव्यवहारकालान्वयिनः प्रतिपाद्यत्वप्रतीतेः / चैतन्यविशिष्टकार्यार्थस्तत्त्वोपदेश इति चेत्, तच्चैतन्यं कायात्तत्त्वांतरमतत्त्वांतरं वा ? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, बंधं प्रत्येकतामापन्नयो: कायचैतन्ययोर्व्यवहारनयाज्जीवव्यपदेशसिद्धेः / निश्चयनयात्तु चैतन्यार्थ एव तत्त्वोपदेशः, जीवादि तत्त्वों का द्वन्द्व समास करने पर शास्त्र में यथोक्त क्रम हेतु विशेष की अपेक्षा रहती है। यदि इस क्रम में हेतु विशेष की अपेक्षा न मानी जाय तो जीव आदि के रखने के नियम का अयोग आता है अर्थात् इनका इच्छानुसार न्यास किया जा सकेगा। जीव अजीव आदि के रखने के क्रम का नियम नहीं रहेगा। इस सूत्र में सात तत्त्वों में सर्वप्रथम जीव को ग्रहण किया है क्योंकि तत्त्व का उपदेश जीव के लिए ही उपयोगी है। अर्थात् तत्त्वों के कहने का, सुनने का, पालन करने और स्वामित्व का अधिकार जीव को ही है। तत्त्वों का उपदेश आत्मा के लिए नहीं है अपितु सत्त्व रज और तमोरूप वाले प्रधान (प्रकृति) के लिए है ऐसा (कपिल का) कहना उचित नहीं है, क्योंकि प्रधान के अचेतनत्व होने से तत्त्वोपदेश के द्वारा अनुग्रह करना संभव नहीं है घटादिक के समान / जैसे अचेतन होने से घट-पट आदि का तत्त्वोपदेश के द्वारा अनुग्रह (उपकार) नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार प्रधान अचेतन है उसके लिए भी तत्त्वोपदेश उपकारक नहीं है। तत्त्वोपदेश क्षणिक चित्त सन्तान के लिए उपयोगी है ऐसा कथन भी सार रहित है क्योंकि चित्त सन्तान के अवास्तविकता है और अवास्तव होने से उसके अनुग्रह का अयोग है अर्थात् जो वास्तव सन्तान नहीं है वह उपदेश के द्वारा अनुग्रह करने योग्य नहीं है। निरन्वय (क्षण-क्षण में नष्ट होने वाले) क्षणिक चित्त के लिए तत्त्व का उपदेश दिया जाता है, ऐसा भी कहना असंभाव्य है (संभव नहीं है) एक क्षण रहने वाले उस क्षणिक चित्त के प्रतिपाद्यत्व (श्रोतापना) की अनुपपत्ति (अभाव) है क्योंकि जो श्रोता संकेत काल से लेकर व्यवहार कालतक अन्वय रूप से विद्यमान रहता है उसी के प्रतिपाद्यत्व (ज्ञातापने) की प्रतीति होती है। - चैतन्य विशिष्ट (सहित) काय के लिए तत्त्वोपदेश होता है, ऐसा कहते हो तो शरीर सहित चैतन्य शरीर भिन्न स्वतंत्र तत्त्व है या शरीर रूप ही है? यदि प्रथम पक्ष शरीर से चैतन्य भिन्न स्वतंत्र तत्त्व है, ऐसा मानते हो तो सिद्ध साध्यता है अर्थात् चैतन्य के लिए ही तत्त्वोपदेश सिद्ध होता है। ___बंध के प्रति एकत्व होने से व्यहार नय से शरीर और चैतन्य दोनों में जीव व्यपदेश होता है। चैतन्य के साथ एकक्षेत्रावगाही होने से शरीर को भी 'जीव' ऐसा व्यवहार नय से कह दिया जाता है। अत: निश्चय नय से चेतन जीव के लिए ही तत्त्वोपदेश कहा जाता है। चैतन्य शून्य काय के लिए तत्त्वोपदेश घटित नहीं 1. बौद्ध का कथन है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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