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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 44 बंधस्य कर्मयोग्यपुद्गलादानं, संवरस्यास्रवनिरोधः, निर्जरायाः कमैकदेशविप्रमोक्षः, मोक्षस्य कृत्स्नकर्मविप्रमोक्ष इति वक्ष्यमाणं लक्षणं जीवादीनामिह युक्त्यागमाविरुद्धमवबोद्धव्यं / निर्वचनं च जीवादिपदानां यथार्थानतिक्रमात्। तत्र भावप्राणधारणापेक्षायां जीवत्यजीवीजीविष्यतीति वा जीवः, न जीवति नाजीवीत् न जीविष्यतीत्यजीवः, आस्रवत्यनेनास्रवणमात्रं वास्रवः, बध्यतेनेन बंधमानं वा बंधः, संवियतेनेन संवरणमात्रं वा संवरः, निर्जीर्यतेनया निर्जरणमात्रं वा निर्जरा, मोक्ष्यतेनेन मोक्षणमात्रं वा मोक्ष, इति करणभावापेक्षया / / क्रमो हेतुविशेषात्स्याद् द्वंद्ववृत्ताविति स्थितेः। जीवः पूर्वं विनिर्दिष्टस्तदर्थत्वाद्वचोविधेः॥ 20 // तदुपग्रहहेतुत्वादजीवस्तदनंतरम्। तदाश्रयत्वतस्तस्मादास्रवः परत: स्थितः // 21 // बंधश्चानवकार्यत्वात्तदनंतरमीरितः। तत्प्रतिध्वंसहेतुत्वादजीवस्तदनंतरम् // 22 // संवरे सति संभूतेर्निर्जरायास्ततः स्थितिः। तस्यां मोक्ष इति प्रोक्तस्तदनंतरमेव सः॥ 23 // बंध का लक्षण है ज्ञानावरणादि पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करना। आस्रव का निरोध करना संवर का लक्षण है। एकदेश कर्मों का क्षय निर्जरा है और सर्व कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है। इस प्रकार आगे कहे जाने वाले जीवादि के लक्षण यहाँ युक्ति (अनुमान) आगम से अविरुद्ध निर्दोष हैं, ऐसा जानना चाहिए तथा जीव अजीव आदि तत्त्वों का निर्वचन (व्याकरण द्वारा प्रकृति प्रत्यय से) यथार्थ (आर्ष मार्ग) का अतिक्रम न करते हुए जानना चाहिए। यहाँ जीवादि शब्दों का निरुक्ति अर्थ करते हैं, इसमें चैतन्य, सत्ता स्वरूप भाव प्राण धारण करने की अपेक्षा से जो वर्तमान में जीवित है, भूतकाल में जीवित था और भविष्यत् काल में भी जीवित रहेगा वह जीव कहलाता है। इसके विपरीत जो वर्तमान में चैतन्य भाव प्राण से युक्त नहीं है ,भूतकाल में प्राणधारक नहीं था और भविष्य में भावप्राणों से जीवित नहीं रहेगा वह अजीव है। जिसके द्वारा कर्म आते हैं या कर्मों का आना मात्र आस्रव है। जिससे कर्म बंधते हैं वा कर्मों का बँधना मात्र बंध है। जिससे कर्मों का निरोध किया जाता है वा निरोध करना मात्र है वह संवर है। जिससे कर्म झड़ते हैं वा कर्मों का झड़ना मात्र निर्जरा है। जिससे कर्मों का उच्छेद किया जाता है वा उच्छेद होना मात्र मोक्ष है। इस प्रकार करण साधन और भाव साधन के द्वारा जीव आदि तत्त्वों के शब्दों की व्युत्पत्ति से निरुक्ति (शब्दार्थ) कही है। इस सूत्र में जीवादि सात तत्त्वों का इतरेतर द्वन्द्व समास करने पर क्रम हेतु विशेष से जीव का पूर्व में निर्देश (कथन) किया है क्योंकि सम्पूर्ण वचनों की या मोक्षमार्ग के उपदेश आदि के प्रयत्न की प्रवृत्ति जीव के लिए ही की जाती है॥२०॥ जीव के शरीर, वचन आदि के द्वारा उसके उपकार का हेतु होने से वा जीव का अनुग्रह करने वाला होने से जीव के अनन्तर अजीव का ग्रहण किया है। जीव और अजीव (पुद्गल) दोनों के आश्रय होने से दोनों के समीप आस्रव को स्थान दिया है। आस्रव का कार्य होने से बंध को आस्रव के बाद ग्रहण किया है। आस्रव और बंध के प्रतिध्वंस (नाश) का कारण होने से आस्रव और बंध के अनन्तर संवर का कथन किया है। संवर होने पर ही निर्जरा होती है इसलिए संवर के निकट निर्जरा का कथन किया है। निर्जरा के होने पर ही मोक्ष होता है इसलिए निर्जरा के अनन्तर मोक्ष का निर्देश किया है।॥२१-२२-२३॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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