________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 43 एवं प्रयोजनापेक्षाविशेषादास्रवादयः / निर्दिश्यते मुनीशेन जीवाजीवात्मका अपि॥ 18 // बंधमोक्षौ तद्धेतू च तत्त्वमिति सूत्रं वाच्यं जीवाजीवयोर्बंधमोक्षोपादानहेतुत्वादास्रवस्य बंधसहकारिहेतुत्वात् संवरनिर्जरयोर्मोक्षसहकारिहेतुत्वात् तावता सर्वतत्त्वसंग्रहादिति येप्याहुस्तेप्यनेनैव निराकृताः। आस्रवादीनां पृथगभिधाने प्रयोजनाभिधानात्, जीवाजीवयोश्चानभिधाने सौगतादिमतव्यवच्छेदानुपपत्तेः।। जीवादीनामिह ज्ञेयं लक्षणं वक्ष्यमाणकम् / तत्पदानां निरुक्तिश्च यथार्थानतिलंघनात् // 19 // जीवस्य उपयोगलक्षणः, सामर्थ्यादजीवस्यानुपयोगः, आस्रवस्य कायवाङ्मनः कर्मात्मको योगः, पृथक्-पृथक् सात तत्त्वों का औचित्य इस प्रकार जीव और अजीव स्वरूप दो तत्त्व होते हुए भी प्रयोजन की अपेक्षा विशेष से मुनीश ने आस्रव आदि का निर्देश किया है अर्थात् यद्यपि आस्रव आदि तत्त्व जीव और अजीव के ही भेद (पर्याय) हैं तथापि मोक्ष का प्रकरण होने से उनका पृथक् कथन किया है।॥१८॥ ___“बंध मोक्षौ तद्धेतू च तत्त्वं' बंध, मोक्ष और बंध-मोक्ष के हेतु ही तत्त्व हैं, ऐसी सूत्र की रचना करनी थी क्योंकि बंध और मोक्ष का उपादान हेतु होने से जीव और अजीव का बंध-मोक्ष में,बंध का सहकारी होने से आस्रव का बंध कारण में और मोक्ष के सहकारी हेतु होने से संवर निर्जरा का मोक्ष के कारणों में अन्तर्भाव हो जाता है अत: सर्व तत्त्वों का संग्रह हो जाने से “बंध मोक्षौ तद्धेतू च तत्त्वं' ऐसा सूत्र कहना चाहिए / जो ऐसा कहता है उनका भी इस सूत्र से निराकरण कर दिया है। आस्रव आदि के पृथक् कथन करने का विशेष प्रयोजन है- क्योंकि जीव और अजीव का पृथक् कथन न करने से सौगत-बौद्ध, चार्वाक आदि के मत का निराकरण नहीं होता है (वे जीव तत्त्व को स्वतंत्र नहीं मानते हैं।) अर्थात् चार्वाक जीव को स्वतंत्र नहीं मानता, चार भूत (पृथ्वी जल अग्नि वायु) से उत्पन्न हुआ मानता है। ब्रह्माद्वैत अजीव को नहीं मानता, वह सर्व संसार को ब्रह्ममय मानता है। जब जीव अजीव नहीं हैं तो बंध मोक्ष आदि भी नहीं हैं। बौद्ध बंध के हेतु अविद्या और तृष्णा को मानता है जीव का अस्तित्व नहीं मानता अतः सब की मिथ्या भ्रान्तियों का खण्डन करने के लिए सात तत्त्वों का वर्णन किया है। यहाँ जीवादि तत्त्वों का निर्दोष लक्षण आगे कहे जाने वाला जानना चाहिए। अर्थात् जीवादि तत्त्वों का लक्षण आचार्य स्वयं आगे के सूत्रों में कहेंगे, वहाँ से जानना चाहिए। तथा जीवादि पदों (पदार्थों) का यथार्थ का (वास्तविक अर्थ का) उल्लंघन न करके निरुक्ति (शब्दों की व्युत्पत्ति) भी समझना चाहिए॥१९॥ (मिले हुए पदार्थों को पृथक् करनेवाले हेतु को लक्षण कहते हैं।) 6. जीव का लक्षण है उपयोग। जीव का लक्षण उपयोग कर देने पर बिना कहे ही प्रकरण के सामर्थ्य से अजीव का लक्षण अनुपयोग सिद्ध होता है। अर्थात् जिसमें ज्ञान दर्शन की शक्तिं और व्यक्ति पायी जाती है वह जीव है, और जिसमें ज्ञान दर्शन शक्ति नहीं है वह अजीव है। आस्रव का लक्षण है शरीर, वचन और मन के द्वारा उत्पन्न आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन रूप योग।