________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 42 मोक्षसंपादिके चोक्ते सम्यक् संवरनिर्जरे। रत्नत्रयादृतेन्यस्य मोक्षहेतुत्वहानये // 11 // . तेनानागतबंधस्य हेतुध्वंसाद्विमुच्यते। संचितस्य क्षयाद्वेति मिथ्यावादो निराकृतः॥ 12 // संचितस्य स्वयं नाशादेष्यबंधस्य रोधकः / एकः कश्चिदनुष्ठेय इत्येके तदसंगतम् // 13 // निर्हेतुकस्य नाशस्य सर्वथानुपपत्तितः / कार्योत्पादवदन्यत्र विनसा परिणामतः॥ 14 // यतश्चानागताघौघनिरोधः क्रियतेऽमुना। तत एव क्षयः पूर्वपापौघस्येत्यहेतुकः // 15 // सन्नप्यसौ भवत्येव मोक्षहेतुः स संवरः। तयोरन्यतरस्यापि वैकल्ये मुक्त्ययोगतः॥ 16 // एतेन संचिताशेषकर्मनाशे विमुच्यते। भविष्यत्कर्मसंरोधापायेपीति निराकृतम् // 17 // संवर और निर्जरा को तत्त्वों में लेने का हेतु ___ मोक्ष के सम्पादक सम्यक् संवर-निर्जरा का कथन करने पर रत्नत्रय से भिन्न अन्य कारणों के मोक्ष के हेतुत्व की हानि होती है अर्थात् मोक्ष के हेतु संवर निर्जरा ही हैं, सम्यग्दर्शन आदि नहीं ऐसा मानना पड़ेगा। इसलिए रत्नत्रय स्वरूप संवर और निर्जरा तत्त्वों का स्वतंत्र रूप से कथन करना उचित ही है॥११॥ अनागत कर्मबंध के हेतु का ध्वंस हो जाने से और संचित कर्मों का क्षय हो जाने से मोक्ष होता है। इस प्रकार मिथ्यावादियों का निराकरण किया है(क्योंकि मोक्ष और बंध के हेतुओं का स्वतंत्र कथन किये . बिना तत्त्वों का भान नहीं होता) इसलिए सात तत्त्वों का कथन किया है॥१२॥ - कोई वादी कहता है कि संचित कर्मों का क्षय तो स्वयं हो जाता है अत: भविष्य में आने वाले बंध के निरोधक किसी एक मोक्षहेतु का अनुष्ठान करना चाहिए। अर्थात् मोक्षहेतु नाम के तत्त्व से एक ही संवर तत्त्व मानना चाहिए, निर्जरा तत्त्व की आवश्यकता नहीं। आचार्य कहते हैं ऐसा कहना सुसंगत नहीं है, क्योंकि बिना कारण संचित कर्मों का स्वयं नाश होना किसी प्रकार से संभव नहीं है, जैसे कार्यों का उत्पाद बिना हेतु नहीं होता उसी प्रकार नाश भी बिना कारण नहीं होता। स्वभाव से होने वाले परिणामों के सिवाय सभी पदार्थ हेतुजन्य हैं। अतः संवर के समान निर्जरा तत्त्व को भी स्वीकार करना चाहिए। कर्मों का आना रुक जाने पर भी पुरातन कर्मों का नाश हुए बिना आत्मा कर्म बंधन रहित नहीं होता है अत: निर्जरातत्त्व का कथन परमावश्यक है // 13-14 // ____ जिस कारण (संवर) से अनागत पापों के समूह का निरोध होता है उन्हीं कारणों से संचित पापों के समूह का भी क्षय हो जाता है, इसलिए पूर्व पापों के समूह का क्षय अहेतुक होते हुए भी कर्मों का संवर हेतु है, वैसे ही क्षय भी हेतु है अर्थात् जैसे कर्मों का निरोध संवर हेतु है वैसे कर्मों का क्षय (निर्जरा) भी हेतु है। दोनों (निर्जरा और संवर) में एक की भी विकलता होने पर मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती॥१५१६॥ जो कहते हैं कि भविष्य काल में आने वाले कर्मों का निरोध किये बिना ही संचित कर्मों का क्षय हो जाने से मुक्ति हो जाती है, उनका भी इस सूत्र से निराकरण कर दिया है। क्योंकि जैसे निर्जरा मोक्ष की हेतु है वैसे ही संवर भी मोक्ष का हेतु है॥१७॥