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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 41 निर्जराविकल्पयोश्च यथाकालौपक्रमिकानुभवनयोः संवरनिर्जराभ्यां भेदेन श्रद्धातव्यतानुषंगात्। नन्वेवं जीवाजीवाभ्यां भेदेन नास्रवादयः श्रद्धेयास्तद्विकल्पत्वात् अन्यथातिप्रसंगादिति न चोद्यं, तेषां तद्विकल्पत्वेपि सार्वकत्वेन भिदा श्रद्धेयत्वोपपत्तेः। बंधो मोक्षस्तयोर्हेतू जीवाजीवौ तदाश्रयौ। ननु सूत्रे षडेवैते वाच्याः सार्वत्ववादिना // 9 // जीवाजीवौ बंधमोक्षौ तद्धेतु च तत्त्वमिति सूत्रं वक्तव्यं सकलप्रयोजनार्थसंग्रहात्, बंधस्य हि हेतुरास्रवो मोक्षस्य हेतुर्द्विविकल्पः संवरनिर्जराभेदादिति न कस्यचिदसंग्रहस्तत्त्वस्य मोक्षहेतुविकल्पयोः पृथगभिधाने बंधास्रवविकल्पयोरपि पुण्यपापयोः पृथगभिधानप्रसंगादिति चेत्;सत्यं किं त्वाम्रवस्यैव बंधहेतुत्वसंविदे। मिथ्यादृगादिभेदस्य वचो युक्तं परिस्फुटम् // 10 // योग्य तत्त्व मान लेने पर अतिप्रसंग दोष आता है। क्योंकि इनको भेद रूप स्वीकार करने पर गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा आदि संवर के विकल्पों का और यथाकाल सविपाक और औपक्रमिक (अविपाक) निर्जरा के विकल्पों का संवर-निर्जरा से पृथक् तत्त्वरूप से श्रद्धान करने योग्यपने का प्रसंग आता है। . अर्थात् जैसे आस्रव और बंध के विकल्प पुण्य-पाप को भिन्न तत्त्व मान लें तो संवर के गुप्ति आदि भेदों को और निर्जरा के भेद संविपाक अविपाक आदि को भी पृथक् तत्त्व मानने का प्रसंग आता है। . शंका : यदि पुण्य-पाप को पृथक् मानने से अतिप्रसंग आता है तो जीव अजीव के विकल्प होने से जीव अजीव से भिन्न आस्रव आदि को भी श्रद्धेय तत्त्व नहीं मानना चाहिए क्योंकि आस्रव आदि को पृथक् मानने पर भी अतिप्रसंग दोष आता है। समाधान : ऐसी शंका करना उचित नहीं है, क्योंकि आस्रव आदि के जीव अजीव का विकल्पत्व होने पर भी सर्व जीवों के लिए हित रूप से (हितकारी होने से) भिन्न रूप से श्रद्धेयत्व की उत्पत्ति होती है। अर्थात् यद्यपि आस्रव आदि जीव और अजीव की पर्याय हैं तथापि इनका भेद रूप कथन किये बिना सर्व जीवों का हित नहीं हो सकता इसलिए इनका पृथक् कथन किया है। शंकाकार कहता है कि बंध, मोक्ष, बंध का कारण, मोक्ष का कारण, तथा उनके आधारभूत जीव और अजीव सर्व जीवों का अनुग्रह करने वाले स्याद्वादियों को इन छह तत्त्वों का ही कथन करना चाहिए // 9 // जीव, अजीव, बंध, मोक्ष, बंध का कारण, मोक्ष का कारण इन छह तत्त्वों का निरूपण करने वाला सूत्र कहना चाहिए। क्योंकि ऐसा कहने पर सकल प्रयोजनीभूत तत्त्वों का संग्रह हो जाता है। बंध का हेतु आस्रव है, मोक्ष का हेतु संवर और निर्जरा के भेद से दो विकल्प रूप है। इन छह तत्त्वों में किसी भी तत्त्व का असंग्रह नहीं है अत: मोक्ष हेतु विकल्पों का (संवर-निर्जरा का) पृथक् ग्रहण करने पर बंध और आस्रव के कारण पुण्य-पाप के भी पृथक् कथन का प्रसंग आता है। समाधान : यद्यपि तुम्हारा यह कथन सत्य है तथापि बंध का हेतु आस्रव ही है, इस बात का ज्ञान कराने के लिए आस्रव के भेद मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का भी तत्त्व रूप से स्वतंत्र कथन करना पड़ेगा। अन्यथा बन्ध का हेतु आस्रव ही है, ऐसा जानना कठिन होगा॥१०॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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