________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*४० जीवोऽजीवश्च बंधश्च द्विष्ठत्वात्तत्क्षयस्य च / श्रद्धेयो नान्यदाफल्यादिति सूत्रकृतां मतम् // 7 // ननु च पुण्यपापपदार्थावपि वक्तव्यौ तयोर्बधव्यत्वाद्वंधफलत्वाद्वा तदश्रद्धाने बंधस्य श्रद्धानानुपपत्तेरसंभवादफलत्वाच्चेति कश्चित् / तदसदित्याह;पुण्यपापपदार्थों तु बंधास्रवविकल्पगौ। श्रद्धातव्यौ न भेदेन सप्तभ्योतिप्रसंगतः // 8 // न हि पुण्यपापपदार्थों बंधव्यौ जीवाजीवबंधव्यवत्, नापि बंधफलं सुखदुःखाद्यनुभवनात्मकनिर्जरावत्। किं तर्हि? बंधविकल्पौ। पुण्यपापबंधभेदेन बंधस्य द्विविधोपदेशात् / तद्धेतुत्वास्रवविकल्पौ वा सूत्रितौ। ततो न सप्तभ्यो जीवादिभ्यो भेदेन श्रद्धातव्यौ। तथा तयोः श्रद्धानेतिप्रसंगात्। संवरविकल्पानां गुप्त्यादीनां होने से (बंध और मोक्ष दो के संयोग और वियोग से होता है अतः द्विष्ठ है।) जीव और अजीव भी श्रद्धान करने योग्य हैं इसलिए जीव, अजीव, आस्रव, बंध ,संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व मुमुक्षु के श्रद्धान करने योग्य हैं। इन सात तत्त्वों से अतिरिक्त तत्त्व निष्फल होने से श्रद्धान करने योग्य नहीं हैं, ऐसा सूत्रकार का मत है॥६-७॥ कोई शंकाकार कहता है कि पुण्य और पाप में बंधव्यत्व (बँधने की योग्यता) और बंध का फलत्व होने से सूत्र में पुण्य और पाप पदार्थ का भी वर्णन करना चाहिए। पुण्य-पाप का श्रद्धान नहीं करने पर बंध तत्त्व के श्रद्धान की अनुपपत्ति होगी, बंध तत्त्व की असंभवता होगी और बंध तत्त्व का फल भी प्राप्त नहीं होगा। अर्थात् बंध और बंध का फल पुण्य-पाप रूप है अत: पुण्य-पाप के श्रद्धान के बिना बंध का और बंध के फल का भी श्रद्धान नहीं हो सकता अत:सूत्र में पुण्य और पाप का कथन करना चाहिए। समाधान : ऐसा कहना असत्, अप्रशंसनीय है क्योंकि पुण्य और पाप पदार्थ आस्रव और बंध विकल्प गत हैं अर्थात् आस्रव और बंध के विकल्प ह अत: सात तत्त्व से अधिक तत्त्व का प्रसंग आने से भेद रूप श्रद्धान करने योग्य नहीं है। तत्त्व के भेदों का श्रद्धान करने पर जीव-अजीव के अनेक भेदों का प्रसंग होने से तत्त्वों की संख्या का निर्णय करना कठिन हो जायेगा॥८॥ किंच जैसे जीव (संसारी) अजीव (पाँचवर्गणारूप पुद्गल) बँधने योग्य है वैसे पुण्य और पाप पदार्थ बँधने योग्य नहीं हैं। अर्थात् पुण्य पाप रूप वर्गणा का पृथक् बंध नहीं होता, न प्रतिक्षण बँधने वाली वर्गणाओं में पुण्य पाप रूप भेद है। वे तो कषायों का निमित्त पाकर पुण्य-पाप रूप होती हैं। तथा सुखदुःखादि अनुभवात्मक निर्जरा के समान पुण्य-पाप बंध का फल भी नहीं है। अर्थात् सुख-दुःख आदि फल देकर कर्मों का झड़ जाना यही बंध का फल है, पुण्य-पाप बंध का फल नहीं है। शंका : पुण्य-पाप क्या वस्तु है ? उत्तर : पुण्य बंध और पाप बंध के भेद से बंधतत्त्व का दो प्रकार का कथन (उपदेश) होने से पुण्य-पाप बंध के विकल्प हैं। अथवा ग्रन्थों में आस्रव के विकल्प रूप से पुण्यपाप को बंध का कारण कहा गया है अर्थात् पुण्य और पाप बन्ध और आस्रव के विकल्प कहे गये हैं। जीवादि सात तत्त्वों से भिन्न (पृथक्) श्रद्धान करने योग्य तत्त्व नहीं कहा है। इन दोनों को पृथक् श्रद्धान करने