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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 37 युक्तिमानासन्नभव्यादिविभागः सद्दर्शनादिशक्त्यात्मकत्वेपि सर्वसंसारिणाम् // सम्यग्दर्शनशक्तेहि भेदाभावेपि देहिनाम् / संभवेतरतो भेदस्तद्व्यक्तेः कनकाश्मवत् // 13 // ___यथा किंचित्कनकाश्मादि संभवत्कनकभावाभिव्यक्तिकमचिरादेव प्रतीयते, अपरं चिरतरेणापि कालेन संभवत्कनकभावाभिव्यक्तिकमन्यदसंभवत्कनकभावाभिव्यक्तिकं शश्वत्कनकशक्त्यात्मकत्वाविशेषेपि संभाव्यते तथा कश्चित् संसारी संभवदासन्नमुक्तिरभिव्यक्तसम्यग्दर्शनादिपरिणामः, परोनंतेनापि कालेन संभवदभिव्यक्तसद्दर्शनादिरन्यः शश्वदसंभवदभिव्यक्तसद्दर्शनादिस्तच्छक्त्यात्मकत्वाविशेषेपि संभाव्यते, इति नासन्नभव्यदूरभव्याभव्यविभागो विरुध्यते बाधकाभावात्सुखादिवत् / तत्र प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भव्यस्य से अन्य जीवों को दर्शनमोह की नाशक सामग्री प्राप्त नहीं होती है क्योंकि उनको कभी भी मोहकर्मके नाशक कारणों का सान्निध्य प्राप्त नहीं हो सकता अर्थात् दर्शनमोह का उपशम, क्षय और क्षयोपशम निकट भव्य को छोड़कर और किसी के नहीं होता अत: सारे संसारी प्राणियों में सम्यग्दर्शनात्मकत्व होने की शक्ति होने पर भी भव्य, दूरभव्य और अभव्य आदि का विभाग युक्तिसंगत ही है। सम्पूर्ण प्राणियों में सम्यग्दर्शन रूप शक्ति का भेद न होने पर भी उस शक्ति की व्यक्ति होने और न होने की अपेक्षा भेद है कनकपाषाण के समान / जैसे सुवर्ण पाषाण में सामान्य सुवर्ण की शक्ति होने पर भी सुवर्ण प्रकट होता भी है नहीं भी होता है, उसी प्रकार सभी जीवों में सम्यग्दर्शन होने की शक्ति है परन्तु प्रकट होने की अपेक्षा भेद है। किसी में शक्ति प्रकट होती है किसी में नहीं॥१३॥ - जैसे किसी कनकपाषाण में विद्यमान (रहनेवाली) शक्ति की शीघ्र ही कनक भाव से व्यक्ति होती प्रतीत होती है अर्थात् शीघ्र ही प्रयोग के द्वारा सुवर्ण पर्याय प्रगट हो जाती है। किसी अन्य सुवर्णपाषाण की सुवर्णशक्ति बहुत काल से सुवर्णरूप पर्याय से व्यक्त होती है तथा किसी पाषाण में सुवर्ण शक्त्यात्मक स्वरूप की सामान्य दशा होने पर भी सुवर्ण की व्यक्ति (प्रगटता) नहीं होती। वैसे ही कोई संसारी जीव तो थोड़े ही काल में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप पर्याय प्रगट करता हुआ आसन्नमुक्त होता है। . _ दूसरा दूरभव्य अनन्त काल में सम्यग्दर्शनादि गुणों को पर्याय रूप से संभवतः प्रगट कर सकेगा। कोई शक्ति स्वरूप की अपेक्षा अविशेषता होने से सम्यग्दर्शन आदि को कभी भी प्रगट नहीं कर सकेगा। अर्थात् उसमें सम्यग्दर्शन प्रगट होने की संभावना ही नहीं है अत: जीवों में निकटभव्यता, दूरभव्यता और अभव्यता इन तीनों का विभाग करना युक्तिसंगत है। सुखादि के समान बाधक कारणों का अभाव होने से विरुद्ध नहीं है। अर्थात् जैसे छद्मस्थ के अगोचर रहने वाले सुख-दुःख, पुण्य-पाप की सत्ता मानने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है, स्वयं संवेद्य है और बाधक प्रमाण न होने से सुख दुःख आदि माने जाते हैं उसी प्रकार संसारी जीवों में भी अतीन्द्रिय आसन्न भव्यत्व, दूर भव्यत्व और अभव्यत्व को मानने में कोई बाधक प्रमाण नही है। इन तीन प्रकार के जीवों में आसन्न भव्य के दर्शन मोहनीय का उपशम आदि अन्तरंग हेतु के होने पर परोपदेश के बिना उत्पन्न हुए तत्त्वार्थ ज्ञान से तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है उसको निसर्गज सम्यग्दर्शन और
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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