SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 36 यो जीवव्यामोहहेतुस्तस्य प्रतिपक्षविशेषोस्ति यथोन्मत्तकरसादेः / तथा च दर्शनमोह इति न तस्य प्रतिपक्षविशेषस्य संपत्तिरसिद्धा॥ स च द्रव्यं भवेत् क्षेत्रं कालो भावोपि वांगिनाम् / मोहहेतुसपत्नत्वाद्विषादिप्रतिपक्षवत् // 11 // . ___ मोहहेतोर्हि देहिनां विषादेः प्रतिपक्षो बंध्यकर्कोट्यादि द्रव्यं प्रतीयते, तथा देवतायतनादि क्षेत्रं, कालश्च मुहूर्तादिः, भावश्च ध्यानविशेषादिस्तद्वद्दर्शनमोहस्यापि सपत्नो जिनेंद्रबिंबादि द्रव्यं, समवशरणादि क्षेत्रं, कालश्चार्धपुद्गलपरिवर्तनविशेषादि वश्चाध:प्रवृत्तिकरणादिरिति निश्चीयते। तदभावे तदुपशमादि प्रतिपत्तेः, अन्यथा तदभावात्।। तत्संपत्संभवो येषां ते प्रत्यासन्नमुक्तयः। भव्यास्ततः परेषां तु तत्संपत्तिर्न जातुचित् // 12 // प्रत्यासन्नमुक्तीनामेव भव्यानां दर्शनमोहप्रतिपक्षः संपद्यते नान्येषां कदाचित्कारणासन्निधानात्। इति जो पदार्थ जीव को व्यामोह करने में कारण होता है, उसका प्रतिपक्षी विशेष पदार्थ अवश्य होता है, जैसे जीव को उन्मत्त करने वाले धतूरे आदि रस का प्रतिपक्षी दही आदि होता है; उसी प्रकार दर्शन मोह भी जीव के व्यामोह का कारण है अत: उसके प्रतिपक्षी विशेष सम्पत्ति की असिद्धि नहीं है। ___ जैसे विष आदि के प्रतिपक्षी द्रव्य क्षेत्र काल भाव के मिलने पर विषादि नष्ट हो जाते हैं वैसे ही मोह के कारणों के प्रतिपक्षी प्राणियों के विशिष्ट द्रव्य क्षेत्र काल भाव हैं // 11 // जैसे संसारी प्राणियों के मोह (बेहोशी) का हेतु विष आदि का प्रतिपक्षी बन्ध्य (विषशक्ति की घातक औषधि), कर्कोटी (विशेष विषनाशक जड़ी-बूटी) द्रव्य प्रतीत होता है। देवता का आयतन, मंत्रशाला आदि क्षेत्र है; मुहूर्त आदि काल है और ध्यान विशेष आदि भाव है (अर्थात् ध्यान पूजा आदि करने से विष नष्ट हो जाता है) उसी प्रकार दर्शन मोहनीय कर्म की शक्ति का घातक प्रतिपक्षी द्रव्य तो जिनप्रतिमा, जिन-मन्दिर, दिगम्बर गुरु आदि हैं। क्षेत्र समवसरण सिद्धक्षेत्र आदि हैं, काल अर्धपुद्गल परिवर्तन विशेष है और भाव अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति करण आदि परिणाम विशेष हैं, ऐसा निश्चय करना चाहिए। इन कारणों से दर्शनमोहनीय का अभाव होने पर ही उसके (दर्शन मोहनीय के) उपशमआदि की प्रतिपत्ति होती है, दूसरे कारणों से उपशम आदि नहीं होते हैं। अर्थात् जिनबिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, जातिस्मरण, वेदनानुभव आदि बाह्य कारणों के और अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणादि अंतरंग कारणों के मिलने पर दर्शनमोह का उपशम, क्षय और क्षयोपशम होता है। भव्य, अभव्य एवं दूरभव्य जिन जीवों के दर्शन मोह के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की प्राप्ति संभव है वे भव्य हैं और उनको मोक्ष होना अति निकट है। और जिनके मोहकर्म के उपशम आदि होना कभी संभव नहीं है वे अभव्य हैं। अर्थात् भव्य के ही दर्शन मोह का उपशम आदि होता है उनसे पर अभव्यों के दर्शन मोह का उपशम आदि संभव नहीं है॥१२॥ __ निकट मुक्ति वाले भव्यों को ही दर्शनमोह की प्रतिपक्ष (नाशक) सामग्री प्राप्त होती है। निकट भव्य
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy