________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 35 तस्याहेतुकत्वेन सर्वदा सद्भावात्, अन्यथा कदाचित्कस्यचिन्न जनयेत् सर्वदाप्यसत्त्वात् विशेषाभावादिति चेन्न,तस्य सहेतुकत्वात्प्रतिपक्षविशेषमंतरेणाभावात् / कथं प्रतिपक्षविशेषाद्दर्शनमोहस्योपशमादिरित्युच्यते;दृग्मोहस्तु क्वचिजातु कस्यचिन्नुः प्रशाम्यति। प्रतिपक्षविशेषस्य संपत्तेस्तिमिरादिवत् // 8 // क्षयोपशममायाति क्षयं वा तत एव सः। तद्वदेवेति तत्त्वार्थश्रद्धानं स्यात्स्वहेतुतः॥९॥ - यः क्वचित् कदाचित् कस्यचिदुपशाम्यति क्षयोपशममेति क्षीयते वा स स्वप्रतिपक्षप्रकर्षमपेक्षते यथा चक्षुषि तिमिरादिः। तथा च दर्शनमोह इति नाहेतुकस्तदुपशमादिः॥ प्रतिपक्षविशेषोपि दृङ्मोहस्यास्ति कश्चन / जीवव्यामोहहेतुत्वादुन्मत्तकरसादिवत् // 10 // यदि वे उपशमादि सभी जीवों के सर्वदा सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं करते हैं तो विशेषता का अभाव है और सर्वदा (सर्वकाल में भी) असत्त्व होने से किसी भी काल में किसी के भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं करेंगे। अर्थात् बिनाकारण होने से किसी के किसी काल में सम्यग्दर्शन उत्पन्न करे और किसी के न करे, ऐसा नहीं हो सकता ? समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम आदि निर्हेतुक नहीं है, सहेतुक है। कारण दर्शन मोहनीय कर्म के प्रतिपक्षी काललब्धि, ध्यान, अध:करण आदि परिणामों के बिना दर्शन मोह के उपशम आदि होने का अभाव है अर्थात् विशेष व्यक्ति के विशेष काल में दर्शन मोह के नाशक कारणों के मिलने पर ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है अतः सम्यग्दर्शन की सर्वदा उत्पत्ति वा सर्वदा अनुपपत्ति का प्रसंग नहीं आता है। कर्मों के शत्रुरूप प्रतिपक्षी विशेष से दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय और क्षयोपशम कैसे होता है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं- जैसे आँख का तिमिर रोग औषधि विशेष से नष्ट होता है उसी प्रकार दर्शन मोहनीय कर्म के नाशक विशेष प्रतिपक्षियों की प्राप्ति होने पर किसी क्षेत्र, काल में किसी आत्मा में दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम होता है। जिस प्रकार विशेष कारणों से दर्शन मोह का उपशम होता है उसी प्रकार विशेष कारणों से दर्शन मोह का क्षय और क्षयोपशम भी होता है अत: तत्त्वार्थ श्रद्धान स्वहेतु (स्वकारणों) से होता है (बिना कारण नहीं)॥ 8-9 // जैसे चक्षु में उत्पन्न तिमिरादि रोग उपशमित या क्षय होने में रोग की प्रतिकार औषधि की अपेक्षा रखते हैं उसी प्रकार जो दर्शनमोह किसी क्षेत्र में किसी आत्मा में क्षय, उपशम और क्षयोपशम को प्राप्त होता है वह अपने प्रतिपक्षी के प्रकर्ष की अपेक्षा करता है अत:दर्शनमोह का उपशम, क्षय और क्षयोपक्षम अहेतुक (निर्हेतुक) नहीं है। ___ जैसे उन्मत्त करने वाले मद्य, भांग आदि के रस की शक्ति का विघातक दही आदि कोई प्रतिपक्षी पदार्थ है, उसी प्रकार जीव के व्यामोह का हेतु होने से दर्शन मोहनीय कर्म का भी कोई प्रतिपक्षी विशेष अवश्य है॥१०॥