________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 38 दर्शनमोहोपशमादौ सत्यंतरंगे हेतौ बहिरंगादपरोपदेशात्तत्त्वार्थज्ञानात् परोपदेशापेक्षाच्च प्रजायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं निसर्गजमधिगमजं च प्रत्येतव्यम् // किं तत्त्वं नाम येनार्यमाणस्तत्त्वार्थ इष्यते। इत्यशेषविवादानां निरासायाह सूत्रकृत् // जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् // 4 // ___ तत्त्वस्य हि संख्यायां स्वरूपे च प्रवादिनो विप्रवदंते तद्विप्रतिपत्तिप्रतिषेधाय सूत्रमिदमुच्यते। तत्र जीवादिवचनात्। सप्त जीवादयस्तत्त्वं न प्रकृत्यादयोऽपरे। श्रद्धानविषया ज्ञेया मुमुक्षोर्नियमादिह // 1 // तथा चानंतपर्यायं द्रव्यमेकं न सूचितम् / तत्त्वं समासतो नापि तदनंतं प्रपंचतः॥२॥ मध्यमोक्त्यापि तद्व्यादिभेदेन बहुधा स्थितम् / नातः सप्तविधा तत्त्वाद्विनेयापेक्षितात्परम् // 3 // ___ प्रकृत्यादयः पंचविंशतिस्तत्त्वमित्यादिसंख्यांतरनिराचिकीर्षयापि संक्षेपतस्तावदेकं द्रव्यमनंतपर्याय अंतरंग कारण के होने पर भी परोपदेश की अपेक्षा से उत्पन्न तत्त्वार्थज्ञान से जो श्रद्धान होता है उसको अधिगमज सम्यग्दर्शन जानना चाहिए। अर्थात् देशनालब्धि के होने पर जिसको सम्यग्दर्शन स्वयमेव हो जाता है, गुरु को विशेष समझाने का क्लेश नही होता वह निसर्गज है और जिसको विशेषरूप से समझाने पर होता है वह अधिगमज है। तत्त्व किसे कहते हैं, जिसके द्वारा निर्णीत अर्थ को तत्त्वार्थ कहा जाता है ? इस प्रकार पूछने वाले के अशेष विवादों को दूर करने के लिए उमास्वामी तत्त्व का प्रतिपादन करने के लिए सूत्र कहते हैं - जीव अजीव आम्रव बंध संवर निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं॥४॥ क्योंकि तत्त्वों की संख्या में और तत्त्व के स्वरूप में प्रवादी विवाद करते हैं अत: उन विवादों का प्रतिषेध (निषेध वा निराकरण) करने के लिए यह सूत्र कहा गया है। इस सूत्र में जीवादि का ग्रहण होने से नियम से मुमुक्षुओं के जीवादि सात तत्त्व होते हैं। अन्य प्रकृति आदि तत्त्व नहीं हैं, ऐसा श्रद्धान का विषय जानना चाहिए। वा ऐसा श्रद्धान करना चाहिए॥१॥ तथा इस सूत्र में संक्षेप से अनन्त पर्याय वाला द्रव्य एक ही तत्त्व है, ऐसा भी नहीं कहा तथा विस्तार से द्रव्य अनन्त हैं ऐसा कथन भी नहीं किया और न मध्यम रीति से दो आदि भेदों से बहुत प्रकार से स्थित तत्त्व का वर्णन किया है अपितु शिष्यों के आशय की अपेक्षा से सात प्रकार के तत्त्वों का कथन किया है अर्थात् विनीत शिष्य को मोक्ष के लिए सात तत्त्व ही अपेक्षित हैं अत: जीवादि सप्तविध तत्त्वों का निरूपण किया है॥२-३॥ सांख्य मतावलम्बी कपिल ने प्रकृति, महान् , अहंकार, स्पर्शन इन्द्रिय, रसना,घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन, वचनशक्ति, हाथ, पाँव, गुदास्थान, जननेन्द्रिय, शब्दतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, रस तन्मात्रा, गन्ध तन्मात्रा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी और पुरुष ये 25 तत्त्व माने हैं। वैशेषिक ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष आदि तत्त्व माने हैं, किसी ने प्रमाण प्रमेय आदि 16 तत्त्व माने हैं। अत: प्रकृति आदि 25 तत्त्व हैं, इत्यादि संख्यान्तरों के निराकरण करने की इच्छा से संक्षेप से अनन्त पर्याय वाला द्रव्य ही