________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 32 प्रवर्तमानत्वादिति चेन्न, परोपदेशापेक्षस्य तत्त्वार्थज्ञानस्याधिगमशब्देनाभिधानात्। नन्वेवमितरेतराश्रयः सति सम्यग्दर्शने परोपदेशपूर्वकं तत्त्वार्थज्ञानं तस्मिन् सति सम्यग्दर्शनमिति चेन्न, उपदेष्ट्रज्ञानापेक्षया तथाभिधानादित्येके समादधते / तेपि न युक्तवादिनः / परोपदेशापेक्षत्वाभावादुपदेष्ट्रज्ञानस्य, स्वयंबुद्धस्योपदेष्टुत्वात्, प्रतिपाद्यस्यैव परोपदेशापेक्षतत्त्वार्थज्ञानस्य संभवात्। यदैव प्रतिपाद्यस्य परोपदेशात्तत्त्वार्थज्ञानं तदैव सम्यग्दर्शनं तयोः सहचारित्वात् ततो नेतरेतराश्रय इत्यन्ये / तेपि न प्रकृतज्ञाः / सद्दर्शनजनकस्य परोपदेशापेक्षत्वात् तत्त्वार्थज्ञानस्य प्रकृत्वात् तस्य तत्सहचारित्वाभावात् सहचारिणस्तदजनकत्वात् / परोपदेशापेक्षस्य तत्त्वार्थज्ञानस्य सम्यग्दर्शनजननयोग्यस्य परोपदेशानपेक्षतत्त्वार्थज्ञानवत्सम्यग्दर्शनात्पर्वं स्वकारणादत्पत्तेर्नेतरेतराश्रयणमित्यपरे. सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों के ही पूर्व जो सामान्य ज्ञान है या सम्यग्दर्शन के समय में वही ज्ञान समीचीन मतिज्ञानादि रूप से परिणत हो जाता है। जैसे वादी के द्वारा माना गया सम्यग्ज्ञान के पूर्व का सामान्य ज्ञान सम्यग्ज्ञान होते ही सम्यग्ज्ञान रूप परिणत हो जाता है। ___ ज्ञान मात्र से जाने हुए पदार्थों से प्रवर्त्तमान (उत्पन्न) होने से सभी सम्यग्दर्शन अधिगमज ही है। आचार्य कहते हैं-ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है क्योंकि इस प्रकरण में परोपदेश की अपेक्षा रखने वाले तत्त्वार्थ ज्ञान को अधिगम शब्द से स्वीकार किया है। कोई प्रश्न करता है कि- अधिगमजन्य सम्यग्दर्शन में इतरेतर आश्रय (अन्योऽन्याश्रय) दोष आता है क्योंकि सम्यग्दर्शन होने पर परोपदेशपूर्वक होने वाला तत्त्वार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान होगा और उसके सम्यग्ज्ञान होने पर सम्यग्दर्शन होगा ? कोई विद्वान् समाधान करते हैं कि इसमें अन्योन्याश्रय दोष नहीं आता क्योंकि उपदेष्टा (वक्ता) के ज्ञान की अपेक्षा ऐसा कह दिया जाता है अर्थात् वक्ता का ज्ञान ही परोपदेश से उत्पन्न हुआ है। उसके ज्ञान से शिष्य के अधिगमजन्य सम्यग्दर्शन कह दिया जाता है। आचार्य कहते हैं, ऐसा कहने वाला युक्तिवादी नहीं है, क्योंकि उपदेष्टा का ज्ञान परोपदेश की अपेक्षा नहीं रखता। स्वयं अनुभव किये हुए विद्वान् ही उपदेष्टा (वक्ता) होते हैं। अर्थात् सम्यग्दर्शन को उत्पन्न कराने वाले उपदेश का वक्ता स्वयंबुद्ध होता है। अत: उपदेष्टा की अपेक्षा परोपदेश की आवश्यकता नहीं है; अपितु प्रतिपाद्य (प्रतिपादन करने योग्य) शिष्य के ही तत्त्वार्थज्ञान को परोपदेश की अपेक्षा होना सम्भव है। जिस समय शिष्य को परोपदेश से तत्त्वार्थ ज्ञान होता है उसी समय सम्यग्दर्शन होता है क्योंकि दोनों में सहचर भाव है अर्थात् दोनों एक साथ होते हैं। इसलिए इन दोनों में इतरेतर आश्रय दोष नहीं होता। ऐसा कथन करने वाला भी प्रकरण को जानने वाला नहीं है क्योंकि यहाँ प्रकरण में परोपदेश की अपेक्षा से उत्पन्न सम्यग्दर्शन का जनक तत्त्वार्थज्ञान है। यह सम्यग्दर्शन के सहचर ज्ञान का प्रकरण नहीं है अतः सम्यग्दर्शन के उत्पादक परोपदेशरूप तत्त्वार्थज्ञान में सम्यग्दर्शन के सहचरत्व का अभाव है क्योंकि जो सहचर होता है वह उसका उत्पादक नहीं होता। ___दूसरे कोई कहते हैं - जैसे परोपदेश की अपेक्षा नहीं रखने वाला सामान्य तत्त्वार्थज्ञान सम्यग्दर्शन के पूर्व अपने ही कारणों से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार परोपदेश की अपेक्षा रखने वाला, सम्यग्दर्शन को करने की योग्यता वाला तत्त्वार्थ ज्ञान भी सम्यग्दर्शन के पूर्व क्षयोपशम आदि स्वकारणों से उत्पन्न होता है