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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 381 चायुक्तं तस्य मध्यव्यपदेशप्रसंगात्। भागो व्यवधायको मध्यमिति वायुक्तिकं हिमवत्सागरांतरमित्यादिषु मध्यस्यांतरस्य व्यवधायकभागस्याप्रतीतेः / पूर्वापरादिभागविरहोंतरालभागो मध्यमितिचेत् तर्हि सर्व एव क्क क्षेत्रविरहोंतरालरूपः छिद्रं इति विरह एवांतरं न्याय्यं तत्र छिद्रमध्ययोः कथंचिद्विरहकालादनन्यत्वेपि जीवतत्त्वाधिगमानंगत्वादिहानधिकारादवचनं / विरहकालस्य तु तदंगत्वादुपदेश इति युक्तं। पुद्गलतत्त्वनिरूपणायां तु छिद्रमध्ययोरपि वचनं वार्तिककारस्य सिद्धम्॥ अत्रौपशमिकादीनां भावानां प्रतिपत्तये। भावो नामादिसूत्रोक्तोप्युक्तस्तत्त्वानुयुक्तये // 56 // नामादिषु भावग्रहणात्पुनर्भावग्रहणमयुक्तमिति न चोद्यं, अत्रौपशमिकादिभावापेक्षत्वात्तद्ग्रहणस्य कहने पर उस छिद्र के मध्यपने के व्यवहार का प्रसंग आता है। परन्तु शंकाकार ने छेद को मध्य से भिन्न माना है। तथा “व्यवधान करने वाला भाग (हिस्सा) मध्य है" इस प्रकार मध्य को छेद्र से भिन्न कहना भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि “हिमवत्सागरान्तरं' इत्यादि प्रयोग में अन्तर शब्द का अर्थ मध्य अभीष्ट है, परन्तु समुद्र के मध्य में हिमवान पर्वत के रहने का व्यवधान करने वाले भाग (हिस्से) की प्रतीति नहीं होती है। अत: व्यवधान करने वाला भाग मध्य नहीं है। यदि पूर्वापर (पूर्व पश्चिम) आदि भागों (हिस्सों) का विरहस्वरूप मध्यवर्ती अन्तराल भाग मध्य कहा जाता है, तो सभी क्षेत्र मध्य हो जायेंगे। ऐसी अवस्था में अन्तराल स्वरूप क्षेत्रविरह को छिद्रपना कैसे रह सकता है अत: इस सूत्र में अन्तर शब्द का अर्थ विरह काल (व्यवधान) करना ही न्याय्य (उचित) है। उन अन्तरों में छिद्र और मध्य के विरह काल से कथञ्चित् अभेद होने पर भी जीवादि तत्त्वों की अधिगति (ज्ञान) में छिद्र और मध्य कारण न होने से इस सूत्र में छिद्र और मध्य का अधिकार नहीं है (उपयोग नहीं है) अतः छिद्र और मध्य का यहाँ ग्रहण नहीं है (अवचन है) परन्तु जीवादि तत्त्वों के अधिगम का उपाय (कारण) होने से विरह काल का उपदेश (कथन) किया गया है। इसलिए अन्तर का अर्थ विरह (काल व्यवधान) कहना युक्त है। - तथा पुद्गल तत्त्व का निरूपण करने पर तो छिद्र और मध्य को भी ग्रहण करना वार्त्तिककार (अकलंक देव) को सिद्ध है, इष्ट है। अर्थात् पुद्गल तत्त्व के अधिगम में छिद्र और मध्य भी अन्तर शब्द से ग्रहण करना आचार्य देव को इष्ट है। . इस प्रकार अन्तर का प्रकरण समाप्त हो गया / अब भावों का वर्णन करते हैं: यद्यपि “नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः" सूत्र में वस्तु की वर्तमान पर्याय रूप भाव का कथन हो चुका है तथापि इस “सत्संख्या.." सूत्र में औपशमिक, क्षायिक आदि भावों का ज्ञान कराने के लिए भाव का निरूपण किया है। शिष्यों को विशद रूप से तत्त्वों का अनुयोग कराने के लिए महर्षियों ने उद्योग किया है॥५६॥ नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों में 'भाव' का ग्रहण हो जाने से पुनः भाव का ग्रहण करना युक्त नहीं है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि इस सूत्र में औपशमिकादि भावों की अपेक्षा
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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