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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 382 विनेयाशयवशो वा तत्त्वाधिगमहेतुविकल्पः सर्वोऽयमित्यनुपालंभः॥ एतेल्पे बहवश्चैतेऽमीभ्योऽतिविविक्तये। कथ्यतेल्पबहुत्वं तत्संख्यातो भिन्नसंख्यया // 57 // प्रत्येकं संख्यया पूर्व निश्चितार्थेपि पिंडतः / कथ्यतेल्पबहुत्वं यत्तत्ततः किं न भिद्यते // 58 // ___ ननु यथा विशेषतोऽर्थानां गणना संख्या तथा पिंडतोपि ततो न संख्यातोल्पबहुत्वं भिन्नमितिचेन्न,कथंचिद्भेदस्य त्वयैवाभिधानात् / न हि सर्वथा ततस्तदभेदविशेषे संख्या पिंडं संख्येति वक्तुं शक्यम्॥ इति प्रपंचतः सर्वभावाधिगतिहेतवः / सदादयोनुयोगाः स्युस्ते स्याद्वादनयात्मकाः // 59 // सकलं हि वस्तुसत्त्वादयोऽनुयुजाना: स्याद्वादात्मका एव विकल्पयंतु नयात्मका एवेति न प्रमाणनयेभ्यो भिद्यते। तत्प्रभेदास्तु प्रपंचतः सर्वे तत्त्वार्थाधिगमहेतवोऽनुवेदितव्याः॥ होने के कारण 'भाव' का ग्रहण करना सार्थक है। अथवा विनीत शिष्यों के अभिप्राय के आधीन तत्त्वांधिगम कराने वाले हेतुओं की कल्पना होती है अतः स्याद्वाद सिद्धान्त में यह उलहना नहीं है। भावार्थ : भाव प्ररूपणा से वस्तु-स्वरूप व आत्मतत्त्व का भान होता है। इस आठवें सूत्र में कथित अनुयोग के द्वारा तत्त्वों का ज्ञान होता है। अब अल्पहुत्व का कथन करते हैं उन पदार्थों से ये पदार्थ अल्प संख्या वाले हैं, ये पदार्थ इन पदार्थों से बहुत है। इस प्रकार पदार्थों के पृथक् भाव कराने के लिए अल्पबहुत्व कहा जाता है। यह अल्पबहुत्व संख्या प्ररूपणा से भिन्न है। पूर्व में प्रत्येक पदार्थ जो संख्या प्ररूपणा के द्वारा निश्चित हो चुका है उसमें भी पिण्ड रूप से परस्पर अल्पबहुत्व कहा जाता है अतः संख्या से अल्पबहुत्व भिन्न क्यों नहीं होगा (अवश्य होगा)। प्रत्येक पदार्थ की गणना करने वाली संख्या से पिण्डरूप से मिले हुए अनेक पदार्थों की अपेक्षा न्यूनता और अधिकता का कथन करने वाला अल्पबहुत्व भिन्न ही है॥५७-५८॥ शङ्का : जैसे विशेष रूप से पदार्थों की गणना करना संख्या है, उसी प्रकार पिण्ड (समुदाय) रूप से पदार्थों की अल्पबहुत्व रूप से गणना करना भी संख्या है, इसलिए संख्या से अल्पबहुत्व भिन्न नहीं है। समाधान : ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है क्योंकि आपने भी संख्या और अल्पबहुत्व में कथञ्चित् भेद स्वीकार किया है। यदि ऐसा भेद स्वीकार नहीं किया जाएगा तो यह संख्या का पिण्ड है और यह संख्या है' इस प्रकार भेद रूप से कथन करना शक्य नहीं होगा। अत: संख्या का विशेष रूप से ज्ञान कराने के लिए अल्पबहुत्व का उल्लेख किया है। इस प्रकार भेद, प्रभेद के विस्तार से सर्व पदार्थों की ज्ञप्ति (अधिगम) के कारणभूत सत् संख्या आदि आठ अनुयोग होते हैं। वे सर्व स्याद्वाद (प्रमाण) और नयात्मक हैं अर्थात् जगत् के सम्पूर्ण अधिगति के (जानने के) उपाय प्रमाण और नय से बहिर्भूत नहीं हैं प्रमाण और नयात्मक ही हैं॥५९॥ सम्पूर्ण वस्तुओं के सत् संख्या आदि अनुयोग को प्राप्त धर्म स्याद्वादात्मक (श्रुतज्ञान) स्वरूप और एकदेश से विवक्षित सत्त्वादि नय स्वरूप है, ऐसी कल्पना करनी चाहिए अतः सत्त्वादि प्रमाण और नयों
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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