________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *380 ननु न केवलं विरहकालोन्तरं। किं तर्हि . छिद्रं मध्यं वा अंतरशब्दस्यानेकार्थवृत्तेश्छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमग्रहणमिति वचनात् / न चेदं वचनमयुक्तं कालव्यवधानवत्क्षेत्रस्य व्यवधायकस्य भागस्य च पदार्थेषु भावादिति कश्चित् / सोपि यदि मुख्यमंतरं छिद्रं मध्यं वा ब्रूयात् तदानुपहतवीर्यस्य न्यग्भावे पुनरुद्भूतिदर्शनात्तद्वचनमिति विरुध्यते। विरहकालाख्यस्यांतरस्यानेन समर्थनात् / अथाप्रधानं तदिष्टमेव / सांतरं काष्ठं सछिद्रमिति प्रतीतेर्मुख्यं छिद्रमिति चेन्न, तत्रापि विरहस्य तथाभिधानात् / द्रव्यविरहः छिद्रं न कालविरह इति चेन्न, द्रव्यविरहस्य पदार्थप्ररूपणानंगत्वात् / क्षेत्रं व्यवधायकं छिद्रमिति विरह काल को केवल अन्तर ही नहीं कहते। प्रति शंका : काल ही अन्तर नहीं है, तो अन्तर का अर्थ क्या है ? उत्तर : छिद्र, मध्य, आदि अनेक अर्थों में अन्तर शब्द की वृत्ति (प्रवृत्ति) होने से छिद्र, मध्य और विरह काल इनमें से किसी एक को ग्रहण करना चाहिए। ऐसा कहा गया है। और वचन युक्तिरहित नहीं है। अर्थात् अकलंकदेव ने अन्तर शब्द के छिद्र, मध्य, विरह आदि अनेक अर्थ किये हैं। कहीं छेद अर्थ में जैसे यह काठ सान्तर (छेद सहित) है। कहीं भेद अर्थ में “द्रव्य से यह द्रव्यान्तर है।" कहीं विशेष अर्थ में, जैसे इस मनुष्य की अपेक्षा इस मनुष्य में अन्तर (विशेषता) है। कहीं बहिर्योग अर्थ में अन्तर शब्द का प्रयोग होता है, जैसे ग्राम के अन्तर (बाह्य) कुआ है इत्यादि। ये अकलंकदेव के वचन अयुक्त भी नहीं हैं। क्योंकि पदार्थों में जैसे कालकृत व्यवधान है उसी प्रकार व्यवधान करने वाला क्षेत्र का विभाग भी पदार्थों में विद्यमान है। अन्तर का अर्थ केवल काल व्यवधान ही ग्रहण नहीं करना अपितु व्यवधान करने वाले क्षेत्रान्तर आदि को भी ग्रहण करना चाहिए क्योंकि वह क्षेत्र भी पदार्थों में स्थित है। ऐसा कोई वादी कहता है। जैनाचार्य कहते हैं कि वह शंकाकार भी छिद्र अथवा मध्य को यदि मुख्य रूप से अन्तर कहता है तो “नहीं प्रकट हुई है शक्ति जिसकी, ऐसे द्रव्य की निमित्त कारणवश किसी पर्याय के तिरोभाव हो जाने पर अन्य निमित्तों से उसी पर्याय का प्रकट होना देखा जाता है। यह सूत्र में अन्तर कहा गया है" वादी के कथन का अकलंकदेव के वार्त्तिक से विरोध आता है। क्योंकि उन्होंने अन्तर का अर्थ 'विरह काल' नाम से समर्थन किया है। यदि उन छिद्र और मध्य को अन्तर का गौण अर्थ मानते हो तो हम (जैनों) को इष्ट ही है। अत: मुख्य रूप से अन्तर का अर्थ विरह काल है। “काठ सान्तर है (छेद सहित है) इस प्रकार प्रतीति होने के कारण अन्तर शब्द का मुख्य अर्थ छिद्र है" -ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि सूत्र के अर्थ में अन्तर शब्द का अर्थ विरह (व्यवधान) किया गया है। छेद सहित काठ में द्रव्य का विरह (व्यवधान) रूप छेद लिया गया है, विरह का अर्थ काल नहीं किया गया है"-ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि, द्रव्य का विरह (व्यवधान) होना पदार्थ की प्ररूपणा का अंग (कारण) नहीं है। “व्यवधान करने वाला क्षेत्र छिद्र है"-ऐसा कहना भी अयुक्त है। क्योंकि ऐसा