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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 377 न हि व्यावहारिकोपि काल: क्रियामात्रं समकालस्थितिरिति कालविशेषणायाः स्थितेरभावप्रसंगात्। परमः सूक्ष्मः कालो हि समयः सकलतादृशक्रियाविशेषणतामात्मसात् कुर्वंस्ततोऽन्य एव व्यवहारकालस्यावलिकादेर्मूलमुन्नीयते / स च मुख्यकालं वर्तनालक्षणमाक्षिपति तस्मादृते क्वचित्तदघटनात् / न हि किंचिद्गौणं मुख्यादृते दृष्टं येनातस्तस्यासाधनं // परत्वमपरत्वं च समदिग्नतयोः सतोः। समानगुणयोः सिद्धं तादृक्कालनिबंधनं // 45 // परापरादिकालस्य तत्त्वहेत्वंतरान्न हि / यतोऽनवस्थितिस्तत्राप्यन्यहेतुप्रकल्पनात् // 46 // स्वतस्तत्त्वतथात्वे च सर्वार्थानां न तद्भवेत् / व्याप्त्यसिद्धेर्मनीषादेरमूर्तत्वादिधर्मवत् // 47 // यथाप्रतीतिभावानां स्वभावस्य व्यवस्थितौ / काले परापरादित्वं स्वतोस्त्वन्यत्र तत्कृतम् // 48 // व्यवहार रूप प्रयोजन सिद्ध करने वाला काल केवल क्रिया मात्र नहीं है क्योंकि इन पदार्थों की समान काल में स्थिति है, इस प्रकार काल है विशेषण जिसका ऐसी स्थिति के अभाव का प्रसंग आता है। - परम सूक्ष्म काल समय कहलाता है। सम्पूर्ण क्रियाओं के विशेषणों को आत्मसात् (अपने आधीन) करता हुआ उससे पृथक् (अन्य) ही व्यवहार काल का मूल आवलि, मुहूर्त, दिवस आदि से जाना जाता है। वह व्यवहार काल वर्तना लक्षण मुख्य काल का आक्षेप (अनुमान) कर लेता है। क्योंकि वर्तना लक्षण मुख्य काल के बिना व्यवहार काल घटित नहीं होता है क्योंकि मुख्य के होने पर (मुख्य सिंह के होने पर) ही गौण(बच्चे में सिंह) की कल्पना की जाती है मुख्य के अभाव में गौण की कल्पना नहीं होती है। जिससे कि इस व्यवहार काल से उस मुख्य काल का साधन नहीं किया जा सके। समान दिशा में प्राप्त और समान गुण वाले सत्स्वरूप पदार्थ के व्यवहार काल को कारण मानकर परत्व (बड़ा), अपरत्व (छोटा) का व्यवहार सिद्ध होता है। वह परत्व, अपरत्व दिशाकृत वा गुणकृत नहीं है अपितु कालकृत परत्व अपरत्व है। काल में स्थित परत्व और अपरत्व दूसरे हेत्वन्तर से प्राप्त नहीं होता है जिससे उसमें अन्य हेतु की कल्पना करने से अनवस्था दोष आता हो // 45-46 // "जिस प्रकार दीपक स्व-पर प्रकाशक है उसी प्रकार ज्येष्ठ कनिष्ठ, परत्व, अपरत्व व्यवहार काल से होते हैं, परन्तु काल का परिवर्तन स्वतः होता है तथा काल का परत्व अपरत्व भी स्वतः होता है। काल के समान सभी पदार्थों का परत्व, अपरत्व स्वतः नहीं होता है, क्योंकि कोई ऐसी व्याप्ति सिद्ध नहीं। जैसे कि विचार शालिनी बुद्धि, उदारता आदि के अमूर्त्तत्व आदि धर्म हैं वे धर्म घट, पट आदि के नहीं हो सकते हैं। स्वपर दोनों की ज्ञप्ति करना ज्ञान का स्वभाव है वह घट का स्वभाव नहीं हो सकता। जिस प्रकार प्रमाणों से सिद्ध पदार्थों के स्वभावों की व्यवस्था है उसी प्रकार व्यवहार काल में परत्व अपरत्व परिणाम स्वतः हैं। अन्य पदार्थों के परिवर्तन का निमित्त कारण काल कृत है" ऐसा समझना चाहिए॥४७-४८॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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