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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 378 क्वान्यथा व्यवतिष्ठते धर्माधर्मनभांस्यपि / गत्यादिहेतुतापत्तेर्जीवपुद्गलयोः स्वतः॥ 49 // शरीरवाङ्मनःप्राणापानादीनपि पुद्गलाः / प्राणिनामुपकुर्युर्न स्वतस्तेषां हि देहिनः // 50 // जीवा वा चेतना न स्युः कायाः संतु स्वकास्तथा। निंबादिर्मधुरस्तिक्तो गुडादिः कालविद्विषाम्॥५१॥ एकत्रार्थे हि दृष्टस्य स्वभावस्य कुतश्चन / कल्पना तद्विजातीये स्वेष्टतत्त्वविघातिनी // 52 // तस्माज्जीवादिभावानां स्वतो वृत्तिमतां सदा। काल: साधारणो हेतुर्वर्तनालक्षणः स्वतः॥ 53 // न हि जीवादीनां वृत्तिरसाधारणादेव कारणादिति युक्तं, साधारणकारणाद्विना कस्यचित्कार्यस्यासंभवात् अन्यथा (यदि प्रामाणिक प्रतीति के अनुसार स्वभावों की व्यवस्था नहीं मानी जायेगी तो) धर्म,अधर्म और आकाश द्रव्य के भी जीव, पुद्गल के गति, स्थिति में उदासीन कारणत्व, अवगाहनत्व की व्यवस्था कैसे हो सकती है। जीव और पुद्गल की गति, स्थिति, अवगाहन के कारण का प्रसंग स्वयमेव जीव और पुद्गल को प्राप्त हो जाएगा / / 49 / / जैसे कि आकाश स्वयं अपना अवगाह कर लेता है। तथा पुद्गल द्रव्य भी प्राणियों के शरीर वचन मन, प्राण, अपान (श्वासोच्छ्वास) सुख, दुःख, आदि उपकारों को नहीं कर सकेंगे। तथा शरीरधारी प्राणी भी स्वतः उन पुद्गलों का प्रक्षालन, मार्जन आदि द्वारा नियम से उपकार नहीं कर सकेंगे। स्वतः अपना उपकार . करेंगे॥५०॥ प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण सिद्ध पदार्थों के स्वभावों की प्रतीति के अनुसार व्यवस्था नहीं मानी जायेगी तो जीव पदार्थ चेतन स्वरूप नहीं हो सकेंगे। वा जड़ शरीर चेतनस्वरूप हो जायेगा। नीम आदि मधुर हो जायेंगे और गुड़ आदि मधुर पदार्थ तिक्त (कषायले) हो जायेंगे तथा काल द्रव्य से द्वेष करने वालों के किसी भी तत्त्व की व्यवस्था नहीं होगी // 51 // भावार्थ : काल को मानने वाले स्याद्वादियों के वस्तु-व्यवस्था बन सकती है, अन्यथा वस्तु व्यवस्था नहीं हो सकती। एक अर्थ में देखे गये स्वभाव की किसी भी कारण से यदि उस विजातीय पदार्थ में कल्पना की जाती है तो स्वकीय इष्ट तत्त्व की विघात करने वाली होती है। इसलिए सर्वदा स्वयं अपने स्वरूप से वर्तना को प्राप्त जीव, पुद्गल आदि पदार्थों के परिवर्तन में साधारण हेतु वर्तना लक्षण काल है। वह काल अन्य पदार्थों के परिवर्तन में कारण है और स्व के परिवर्तन में कारण है। अन्य पदार्थों का परिवर्तन कराता है और अपनी भी वर्तना करता है।५२-५३।। "जीव, अजीव आदि पदार्थों की उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप वर्त्तना केवल असाधारण कारण से ही होती है" -ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि, साधारण कारण के बिना किसी भी कार्य का उत्पाद होना संभव नहीं है जैसे करणज्ञान (इन्द्रियजन्य ज्ञान) साधारण कारण के बिना नहीं ह्ये सकता।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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