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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 376 द्रव्यतोऽनादिपर्यंते सिद्धे वस्तुन्यबाधिते। स्पर्शनस्य प्रतिक्षेपस्त्रिकालस्य न युज्यते // 42 // न हि येनात्मनातीतमनागतं वा तेनानंतमनादि वा वस्तु ब्रूमहे, यतो विरोध: स्यात् / नापि स तदात्मा वस्तुनो भिन्न एव, येन तस्यातीतत्वेऽनागतत्वे च वस्तुनोऽनंतत्वमनादित्वं च कथंचिन्न सिध्येत् / ततोऽनाद्यनंतवस्तुनः कथंचित्रिकालविषयत्वं न प्रतिक्षेपार्हमविरुद्धत्वादिति श्लेषांशस्तल्लक्षण: स्पर्शनोपदेशः। स्थितिमत्सु पदार्थेषु योवधिं दर्शयत्यसौ / कालः प्रचक्ष्यते मुख्यस्तदन्यः स्वस्थितेः परः // 43 // न हि स्थितिरेव प्रचक्ष्यमाणः कालः स्थितिमत्सु पदार्थेष्ववधिदर्शनहेतुः कालत्वात् स्थानक्रियैव व्यवहारकालो नातोऽन्यो मुख्य इति चेन, तदभावे तदनुपपत्तेः॥ तथाहि;न क्रियामात्रकं कालो व्यवहारप्रयोजनः / मुख्यकालादृते सिद्ध्येद्वर्तनालक्षणात्क्वचित् // 44 // क्योंकि इनमें परस्पर विरोध है और जो अनादि है वह अनागत कैसे हो सकता है ? अत: वस्तु त्रिकालवर्ती कैसे हो सकती है ? उत्तर : द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अबाधित रूप से अनादि अनन्त पर्यन्त रहने वाली वस्तु सिद्ध हो जाने पर त्रिकालवर्ती स्पर्शन का खण्डन करना युक्तिसंगत नहीं है॥४२॥ "जिस परिणाम से वस्तु अतीत और अनागत है, उसी रूप से वस्तु अनादि, अनन्त है" ऐसा स्याद्वादी नहीं मानते हैं जिससे कि विरोध आता है तथा अतीत अनागत परिणामों से वस्तु सर्वथा भिन्न है ऐसा भी नहीं है जिससे कि उन परिणामों को अतीतपना और भविष्यपना होने से वस्तु को कथंचित् अनन्तपना और कथंचित् अनादिपना सिद्ध नहीं होता है। इसलिए अनादि काल से अनन्त काल तक स्थित वस्तु का किसी अपेक्षा तीन काल गोचर वस्तु का खण्डन करना योग्य नहीं है अत: त्रिकाल वस्तु के रहने में कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार तीनों काल में श्लेष होने रूप अंश से उस वस्तु की सिद्धि होती है। यहाँ तक स्पर्शन का वर्णन किया गया है। अब काल का वर्णन करते हैं। जो त्रिकाल रहने वाले पदार्थों में रहने वाली अवधि को दिखाता है, वह काल कहा जाता है। पदार्थों की स्वकीय-स्वकीय स्थिति से यहाँ सत्संख्या से अवस्थित काल मुख्य काल है और वह व्यवहार काल से भिन्न है।॥४३॥ कुछ काल तक स्थित रहने रूप व्याख्यान किया जाने वाला काल पदार्थ नहीं है क्योंकि स्थिति वाले पदार्थों में मर्यादा को दिखाने वाले कारण में कालपना व्यवस्थित है अर्थात् पदार्थों के कुछ समय तक रहने को स्थिति कहते हैं और स्थितिमान पदार्थ के एक समय, वर्ष आदि के परिमाण को काल कहते हैं। “वस्तु के स्थान क्रिया को व्यवहार काल कहते हैं, इस व्यवहार काल से भिन्न कोई मुख्य काल नहीं है?-ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि मुख्य काल के अभाव में व्यवहार काल उत्पन्न नहीं हो सकता। सो ही कहते हैं-व्यवहार का प्रयोजक क्रिया मात्र (समय, घड़ी, घण्टा आदि काल) काल वर्तना लक्षण मुख्य काल के बिना कहीं पर भी सिद्ध नहीं हो सकता // 44 //
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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