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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 375 सामीप्यादिपरित्यागाद्व्यापकस्य परिग्रहात् / शरीरे जीव इत्यधिकरणं क्षेत्रमन्यथा // 40 // ___ शरीरे जीव इत्यधिकरणं व्यापकाधाररूपमुक्तं, सामीप्याद्यात्मकाधाररूपं तु क्षेत्रमिहोच्यते ततोन्यथैवेति न पुनरुक्तता क्षेत्रानुयोगस्य // त्रिकालविषयार्थोपश्लेषणं स्पर्शनं मतम् / क्षेत्रादन्यत्वभागवर्तमानार्थश्लेषलक्षणात् // 41 // त्रिकालविषयोपश्लेषणं स्पर्शनं, वर्तमानार्थोपश्लेषणात् क्षेत्रादन्यदेव कथंचिदवसेयं / सर्वस्यार्थस्य वर्तमानरूपत्वात्स्पर्शनमसदेवेति चेन्न, तस्य द्रव्यतोऽनादिपर्यंतरूपत्वेन त्रिकालविषयोपपत्तेः। नन्विदमयुक्तं वर्तते वस्तु त्रिकालविषयरूपमनाद्यनंतं चेति / तद्धि यद्यतीतरूपं कथमनंतं ? विरोधात् / तथा यद्यनागतं कथमनादि ? ततो न त्रिकालवर्तीति॥ यह समीप है, यह दूर है, यह दूरतर है इत्यादिक का परित्याग करने से और केवल व्यापक आधार को ग्रहण करके जो कथन किया जाता है वह अधिकरण है जैसे इस शरीर में जीव है, इत्यादि कथन अधिकरण रूप है। उससे अन्यथा (समीपता, दूरता आदि से कथन करना) क्षेत्र है। अर्थात् समीप आदि के सम्बन्ध से क्षेत्र की व्यवस्था होती है।॥४०॥ शरीर में जीव है, ग्राम में वृक्ष है, इत्यादि व्यापक आधारात्मक अधिकरण होता है और समीपता, अन्तराल, दूर इत्यादि परक आधार रूप क्षेत्र कहलाता है। अत: अधिकरण से क्षेत्र भिन्न है; अन्य प्रकार का है। अत: 'सत्संख्या' इत्यादि सूत्र में क्षेत्रानुयोग की प्ररूपणा पुनरुक्त नहीं है। भावार्थ : अधिकरण से क्षेत्र विशेष अधिक है, विशाल है। अधिकरण में केवल आधेय ही रहता है परन्तु क्षेत्र में आधेय से भिन्न पदार्थ भी रहते हैं। जैसे सम्यग्दर्शन का बाह्य अधिकरण त्रस नाली है, और अंतरंग क्षेत्र आत्मा है। परन्तु त्रस नाली रूप क्षेत्र में सम्यग्दृष्टि के अतिरिक्त अन्य पदार्थ भी रह सकते हैं। क्षेत्र में समीपता आदि का कथन है; अधिकरण में केवल आधार का ही कथन है। ___ भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप तीनों कालों में पदार्थों का आधेयरूप से संसर्ग रखने वाला स्पर्श कहा जाता है जो वर्तमान काल में पदार्थों का संसर्ग रखने वाले क्षेत्र से अन्यत्व भाग (भिन्नत्व धारण करने वाला) है॥४१॥ ___वर्तमानकालीन पदार्थों के संसर्ग रखने वाले क्षेत्र से त्रिकाल संसर्ग रखने वाला स्पर्श कथंचित् अन्य (भिन्न) ही है ऐसा समझना चाहिए। “सारे पदार्थों का वर्तमान स्वरूप ही है अर्थात् सम्पूर्ण पदार्थ एक क्षण रहकर नष्ट हो जाते हैंअत: स्पर्शन का कथन करना असत् स्वरूप है। वे तीनों काल में रह नहीं सकते ?"-ऐसा कहना उचित नहीं है-क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों के द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि काल पर्यन्त अन्वित रहने से त्रिकाल विषय (त्रिकाल में रहना) सिद्ध हो जाता है। प्रश्न : वस्तु त्रिकालगोचर अनादि अनन्त स्वरूप है, ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जो अनन्त रूप है वह अतीत कैसे हो सकता है? अर्थात् जो अनन्त रूप है उसका अन्त कैसे हो सकता है?
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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