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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 372 सन्नप्ययं ततस्तावन्नाभिन्नः स्वमतक्षतेः / भिन्नश्चेत्स स्वसंबंधिसंबंधोन्योस्य कल्पनात् // 34 // सोपि तद्भिन्नरूपश्चेदनवस्थोपवर्णिता / तादात्म्यपरिणामस्य समवायस्य तु स्थितिः // 35 // सुदूरमपि गत्वा विशेषणविशेष्यभावस्य स्वसंबंधिभ्यां कथंचिदनन्यत्वोपगमे समवायस्य स्वसमवायिभ्यामन्यत्वसिद्धेः सिद्धः कथंचित्तादात्म्यपरिणामः समवाय इति संख्या तद्वतः कथंचिदन्या॥ गणनामात्ररूपेयं संख्योक्तातः कथंचन / भिन्ना विधानतो भेदगणनालक्षणादिह // 36 // . निर्देशादिसूत्रे विधानस्य वचनादिह संख्योपदेशो न युक्तः पुनरुक्तत्वाद्विधानस्य संख्यारूपत्वादिति न चोद्यं, तस्य ततः कथंचिद्भेदप्रसिद्धेः / संख्या हि गणनामात्ररूपा व्यापिनी, विधानं तु प्रकारगणनारूपं ततः प्रतिविशिष्टमेवेति युक्त: संख्योपदेशस्तत्त्वार्थाधिगमे हेतुः॥ ___ सत् रूप विशेषण-विशेष्य भाव अपने सम्बन्धियों से अभिन्न है, ऐसा तो कह नहीं सकते-क्योंकि ऐसा मानने पर स्वमत (वैशेषिक मत) की क्षति होती है क्योंकि वैशेषिक सम्बन्ध और सम्बन्धी में सर्वथा भेद ही मानता है, यदि समवाय सम्बन्धियों से विशेष्य-विशेषण भाव सम्बन्ध सर्वथा भिन्न स्वीकार करते हैं तो उन विशेष्य-विशेषण भाव सम्बन्ध का अपने सम्बन्धियों के साथ सम्बन्ध कराने वाले दूसरे सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ेगी और वह सम्बन्ध अपने सम्बन्धियों से भिन्न होगा। उसका सम्बन्ध कराने के लिए दूसरे सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ेगी। इसलिए अनवस्था दोष आयेगा। जैन सिद्धान्त के अनुसार गुणगुणी में संख्या और संख्यावान आदि में तादात्म्य परिणाम समवाय की स्थिति है अर्थात् गुण गुणी, संख्या और संख्यावान में कथंचित् भेद है और कथंचित् अभेद है, यही कथन निर्दोष है॥३४-३५॥ बहुत दूर जाकर भी विशेषण-विशेष्य भाव का स्व सम्बन्धियों के साथ कथञ्चित् अभेद स्वीकार करते हैं तब तो समवाय का अपने आधारभूत समवायियों के साथ कथंचित् भिन्नत्व (भेदपना) सिद्ध हो जाता है अत: सम्बन्धियों का कथंचित् तदात्मकत्व से परिणमन होना ही समवाय है, यह सिद्ध हो जाता है। उसी प्रकार संख्या भी संख्या विशिष्ट पदार्थों से कथञ्चित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है।। अर्थात् कथंचित् भेद होने से “संख्यावान द्रव्य की संख्या है" यह भेद निर्देश सिद्ध होता है और कथंचित् अभेद होने से संख्यावान द्रव्यों की विशेष परिणति संख्या है, यह सिद्ध होता है। “सत्संख्या" इस सूत्र में संख्या का अर्थ केवल गणना करना मात्र है अत: भेदों की गणना करना है लक्षण जिसका ऐसे विधान से संख्या कथञ्चित् भिन्न है॥३६॥ कोई कहता है कि “निर्देश, स्वामित्व आदि सूत्र में भेद गणना रूप विधान का कथन हो चुका है, अतः पुन: इस सूत्र में संख्या का उपदेश करना पुनरुक्त दोष होने के कारण युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि विधान संख्यारूपत्व ही है" जैनाचार्य कहते हैं-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि संख्या और विधान में कथंचित् भेद की प्रसिद्धि है। संख्या गणना मात्र रूप होने से व्यापिनी (व्यापक) है। परन्तु विधान प्रकारों की गिनती स्वरूप प्रति विशिष्ट है अत: व्याप्य है। भावार्थ : संख्या सर्वत्र रहती है अत: व्यापक है और कतिपय नियत भेदों की गणना करने वाला विधान कुछ विशिष्ट पदार्थों में रहता है अत: व्याप्य है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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