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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 371 समवायिनोविशेषणं तदा तत्र तयोः प्रतिनियतव्यपदेशहेतुर्विशेषणविशेष्यभावात् प्रतिनियामकात् स्वयं तस्य प्रतिनियतत्वादिति चेन, असिद्धत्वात्॥ युगपन्न विशेष्यंते तेनैव समवायिनः / भिन्नदेशादिवृत्तित्वादन्यथातिप्रसंगतः // 31 // न खादिभिरनेकांतस्तेषां सांशत्वनिश्चयात्। निरंशत्वे प्रमाभावाद्व्यापित्वस्य विरोधतः॥ 32 // विशेषणविशेष्यत्वं संबंधः समवायिभिः / समवायस्य सिद्ध्येत द्वौ वः प्रतिनियामकः // 33 // न हि भेदैकांते समवायसमवायिनां विशेषणविशेष्यभावः प्रतिनियत: संभवति यतः समवायस्य क्वचिनियमहेतुत्वे प्रतिनियामकः स्यात्॥ उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि यह कथन असिद्ध है अर्थात् समवाय और समवायियों का विशेष्य विशेषण भाव सम्बन्ध भी अनवस्था होने के कारण सिद्ध नहीं हो सकता, अतः अनुमान का प्रतिनियत हेतु पक्ष में नहीं रहने से असिद्ध हेत्वाभास है। एक विशेष्य विशेषण भाव सम्बन्ध के द्वारा समवाय वाले अनेक पदार्थ एक समय में एक साथ विशिष्ट नहीं किये जा सकते हैं क्योंकि पदार्थ भिन्न-भिन्न काल-क्षेत्र में अवस्थित हैं। अन्यथा (यदि एक ही विशेष्य विशेषण भाव से अनेक भिन्न क्षेत्र-काल वाले पदार्थों का गुण, कर्म, संख्या आदि से सहित होना मान लिया जायेगा तो) अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् जिस किसी के साथ परस्पर सम्बन्ध हो जायेगा॥३१॥ “आकाश, देश, दिशा आदि के साथ भी अनेकान्त हेत्वाभास नहीं है अर्थात् आकाश, दिशा आदि एक होते हुए भी अनेक के साथ सम्बन्ध रखते हैं अत: जो एक होता है वह अनेक के साथ सम्बन्ध नहीं रखता यह हेतु व्यभिचार ही है क्योंकि आकाश एक होते हुए भी बहुतों के साथ सम्बन्ध रखता है" ऐसा भी नहीं कह सकते। क्योंकि आकाश, दिशा आदि के भी सांशत्व (अंश सहितपना) निश्चित है। .. आकाश आदि को निरंश मानने पर प्रमा (प्रमिति) का अभाव होने से आकाश आदि के व्यापित्व का विरोध आता है अर्थात् निरंश आकाश सारे जगत् में व्यापक नहीं हो सकता। जो सांश होता है वही अनेक देशों में व्यापक हो सकता है, निरंश एक प्रदेश में ही रहता है। एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में स्थित होने पर सांशता सिद्ध हो जाती है॥३२॥ तुम्हारा (वैशेषिकों का) समवायियों के साथ समवाय का विशेष्य विशेषण सम्बन्ध प्रतिनियामक सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् विशेष्य और विशेषण दोनों ही सिद्ध नहीं हो सकते ? // 33 // . समवाय और समवायियों के एकान्त से भेद मान लेने पर विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध भी प्रतिनियत नहीं संभवता है। जिससे कि कहीं पर भी समवाय का नियम कराने के हेतुपन की व्यवस्था करने में नियामक होता। . भावार्थ : सर्वथा भिन्न विशेष्य-विशेषण सम्बन्ध के द्वारा पृथक् स्थित समवाय की नियत व्यवस्था नहीं हो सकती और सर्वथा न्यारे समवाय द्वारा आत्मा, संख्या संख्यावान आदि के संयोजन की नियति नहीं बन सकती है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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