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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 370 केनचिदंशेन क्वचिन्नियमहेतुः समवाय इति चेन, तस्य सावयवत्वप्रसक्तेः स्वसिद्धान्तविरोधात् / निरंश एव समवायस्तथा शक्तिविशेषान्नियमहेतुरित्ययुक्तं, अनुमानविरोधात् / / समवायो न संख्यादि तद्वतां घटने प्रभुः / निरंशत्वाद्यथैवैकः परमाणुः सकृत्तव // 30 // न हि निरंशः सकृदेकः परमाणुः संख्यादि भवतां परस्परमिष्टव्यपदेशनघटने समर्थः सिद्धः तद्वत्समवायोपि विशेषाभावात् / शक्तिविशेषयोगात् समवायस्तत्र परिवृढ इति चेत् , परमाणुस्तथास्तु / सर्वगतत्वात्स तत्र समर्थ इति चेन्न, निरंशस्य तदयोगात् परमाणुवत् / ननु निरंशोपि समवायो यदा यत्र ययोः “सर्वत्र व्यापक समवाय भी किसी विवक्षित एक अंश के कारण किसी वस्तु में नियम करने का निमित्त हो जाता है"-ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने पर समवाय के अवयव सहित होने का प्रसंग आयेगा। तथा समवाय को अवयव वा अंश सहित मानना वैशेषिक सिद्धान्त के विरुद्ध है अत: ऐसा मानना स्वसिद्धान्त विरुद्ध है। ___ “निरंश समवाय भी उस प्रकार की शक्ति विशेष से “संख्यावान, ज्ञानवान' आदि व्यवहारों के नियम करने का हेतु बन जाता है" ऐसा कहना भी उचित नहीं है (अयुक्त है) क्योंकि यह कथन अनुमान के विरुद्ध है। अर्थात् अनुमान प्रमाण से बाधित है। समवाय संख्यादि और संख्यावानादि पदार्थों में सम्बन्ध कराने के लिए समर्थ नहीं है-क्योंकि समवाय निरंश है। जैसे तेरे (वैशेषिक) मत में निरंश एक परमाणु संख्यादि और संख्यावान आदि पदार्थों में एकबार सम्मेलन कराने में समर्थ नहीं है॥३०॥ निरंश एक परमाणु एक ही समय में संख्यादि और संख्यावान आदि में परस्पर इष्ट सम्बन्ध कराने में समर्थ नहीं है अर्थात् जैसे हाथ एक है, अंगुली पाँच हैं इस प्रकार के अभीष्ट व्यवहार को कराने के लिए निरंश परमाणु समर्थ नहीं है। उसी प्रकार निरंश समवाय भी संख्या, संख्यावान, ज्ञान, ज्ञानवान, आदि अभीष्ट व्यवहार को कराने में समर्थ नहीं है क्योंकि निरंश की अपेक्षा परमाणु में और समवाय में कोई विशेषता नहीं है। यदि वैशेषिक कहे कि एक ही निरंश समवाय स्वकीय शक्ति विशेष के संयोग से नियत गुण-गुणी का सम्बन्ध कराने में दृढ़ (समर्थ) है तो फिर निरंश परमाणु भी गुण, गुणी, पर्याय, पर्यायी के सम्बन्ध कराने में समर्थ हो जायेगा। “समवाय सर्वगत है इसलिए सर्व गुण-गुणियों का सम्बन्ध करा देता है"-ऐसा कहना भी उचित नहीं है। "क्योंकि परमाणु के समान निरंश समवाय के सर्वव्यापी होने का अयोग है। निरंश पदार्थ सारे जगत् में व्याप्त होकर नहीं रह सकते। प्रश्न : निरंश समवाय भी जिस समय जिस देश में जिन समवायियों का विशेषण होता है, उस काल में उस स्थान पर उन समवाय, समवायियों के प्रतिनियत व्यवहार का कारण माना जाता है। समवाय और अभाव का तद्वान (अभाववान और समवायवान) के साथ विशेषण विशेष्यभाव सम्बन्ध है अतः प्रतिनियामक विशेषण विशेष्य भाव सम्बन्ध से समवाय सम्बन्ध स्वयं उस संयोग का प्रतिनियत है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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