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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 359 . विरोधासिद्धेः क्वचिद्विकल्पत्वस्यास्पष्टत्वेन दर्शनात्। स्पष्टत्वेन विरोधे चंद्रद्वयप्रतिभासत्वस्य सत्यत्वेनादर्शनात् स्वसंवित्प्रतिभासत्वस्यापि सत्यत्वं मा भूत् तथा तद्विरोधसिद्धेरविशेषात् / अथ प्रतिभासित्वाविशेषेपि स्वसंवित्प्रतिभासः सत्यः शशिद्वयप्रतिभासश्चासत्यः संवादादसंवादाच्चोच्यते तर्हि विकल्पत्वाविशेषेपींद्रियजविकल्पः स्पष्टः साक्षादर्थग्राहकत्वात् नानुमानादिविकल्पोऽसाक्षादर्थग्राहकत्वादित्यनुमन्यतां / तथा चेंद्रियजविकल्पे व्यभिचार एव निर्विकल्पत्वादिंद्रियजस्य ज्ञानस्यानिंद्रियजो विकल्पोस्तीतिचेन्न, तस्याग्रे व्यवस्थापयिष्यमाणत्वात् ततो नावस्पष्टावभासित्वं दृष्टांतेस्तीति / साधनवैकल्यमेव सर्वत्र संख्यायां च तन्नास्तीति पक्षाव्यापको हेतुर्वनस्पतिचैतन्ये स्वापवत् / न हि स्पष्टावभासिष्वर्थेष्वस्पष्टावभासित्वं संख्यायाः प्रसिद्धं / न च तत्र है। क्वचित् विकल्प ज्ञान भी अस्पष्टत्व रूप से दृष्टिगोचर होता है। स्पष्ट का विकल्प के साथ विरोध होने पर एक चन्द्रमा में दो चन्द्रमा के दृष्टिगोचर होने वाले प्रतिभासत्व का सत्य रूप से दर्शन नहीं हो सकता अतः स्वसंवेदन के प्रतिभास को सत्यपना नहीं हो सकता क्योंकि प्रतिभासपने का उस सत्यपने के साथ विरोध की सिद्धि होने में कोई अंतर नहीं है। अथवा सामान्यरूप से प्रतिभासत्व के विशेषता रहित होने पर भी संवादक होने से स्वसंवेदन का प्रतिभास सत्य है और प्रमाणान्तर प्रवृत्ति या सफल प्रवृत्ति का जनक रूप संवादक न होने से दो चन्द्रमा का प्रतिभास असत्य कहा जाता है तो जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा होने पर तो विकल्प की विशेषता न होने से इन्द्रियजन्य ज्ञान भी विकल्पात्मक स्पष्ट है क्योंकि इन्द्रियजन्यज्ञान विशद रूप से अर्थ का ग्राहक है। अनुमान, स्मृति आदि विकल्प ज्ञान अविशद रूप से अर्थ के ग्राहक होने से स्पष्ट नहीं हैं ऐसा मानना चाहिए अत: इन्द्रियजन्य विकल्प ज्ञान में स्पष्टपना होने से संख्या को वास्तविक नहीं मानने में दिये गया व्यभिचार दोष का निराकरण नहीं हुआ। ___ “निर्विकल्प होने से इन्द्रियजन्य ज्ञान के अनिंद्रियजन्य विकल्प है अर्थात् इन्द्रियजन्य ज्ञान निर्विकल्प है अत: विकल्प ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है, अपितु विकल्प ज्ञान अनिन्द्रिय जन्य है।" ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि एकदेश विशद जानने वाला इन्द्रियजन्य सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान विकल्प स्वरूप है, इसकी आगे व्यवस्थापना (सिद्धि) की जाएगी। इसलिए विशद रूप से प्रकाशित स्थूलत्व आदि दृष्टान्त में अस्पष्ट भासित्व हेतु के नहीं रहने से सौगत के द्वारा दिया गया दृष्टान्त साधन विकल है। अथवा-संख्या को निरूप सिद्ध करने में दिया गया अविशद प्रकाशत्व और आपेक्षिकत्व हेतु सम्पूर्ण संख्या में नहीं रहता है, अत: हेतु पक्ष में व्यापक नहीं है-जैसे वनस्पति को चैतन्य सिद्ध करने के लिये दिया गया स्वाप (शयन) हेतु सर्व वनस्पतियों में व्यापक नहीं है अर्थात् वनस्पति में चैतन्य सिद्धि करने के लिए दिया गया शयन हेतु सर्व वनस्पतियों में नहीं रहने से भागासिद्ध हेतु है। वैसे ही सभी संख्याओं में अस्पष्ट भासित्व नहीं है क्योंकि स्पष्ट प्रतिभासी घटादि पदार्थों में रहने वाली संख्या का अस्पष्टभासित्व
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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