________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 358 नीलनीलांतरयोर्हि रूपो यथा नीलापेक्षं नीलांतररूपं तथा नीलांतरापेक्षं नीलमिति नीलादिरूषेषु वस्तु सत्स्वपि भावादपेक्षिकताया न कल्पनारोपितत्वेन व्याप्तिरवगम्यते यतः संख्यांतरया बहिरंतर्नीरूपत्वं। यदि पुनरस्पष्टावभासित्वे सत्यापेक्षिकत्वादिति हेतुस्तदा साधनविकलो दृष्टांतः, स्थविष्ठत्वादिधर्माणां स्पष्टावभासित्वात् / तत्र भ्रांतमिति चेन्न, बाधकाभावात् / स्थविष्ठत्वादिधर्मप्रतिभासो न स्पष्टो विकल्पत्वादनुमानादिविकल्पवदित्यनुमानं तद्बाधकमिति चेन्न, पुरोवर्तिनि वस्तुनींद्रियजविकल्पेन स्पष्टेन व्यभिचारात् / तस्यापि पक्षीकरणादव्यभिचार इति चेत्तर्हि संभाव्यव्यभिचारो हेतुः स्पष्टत्वेन विकल्पत्वस्य __ जैसे नील और नीलान्तर में नील की अपेक्षा नीलान्तर (अधिक नील) रूप है उसी प्रकार नीलान्तर की अपेक्षा नील है। इस प्रकार परमार्थ से सद्भूत नीलादि वस्तुओं में आपेक्षिकपना विद्यमान है इसलिए आपेक्षिकता की, कल्पनारोपितत्व के साथ व्याप्ति नहीं जानी जा सकती है। एतदर्थ अंतरंग और बहिरंग - पदार्थों में रहने वाली संख्या को निस्वरूप न कहा जाये अर्थात् आपेक्षिक भी संख्या वस्तुभूत है स्वरूप शून्य नहीं है। “यदि पुनः कल्पनारोपित साधन में अस्पष्ट रूप से प्रतिभासित होने पर आपेक्षिकपना हेतु कहते हैं अर्थात् बौद्ध आपेक्षिकत्व हेतु से कल्पना आरोपित की सिद्धि नहीं करते हैं-अपितु कल्पनारोपितत्व साधन में अस्पष्ट रूप से प्रतिभासित आपेक्षिक है, ऐसा कहते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि इस साधन में सौगत के द्वारा कथित छोटा, बड़ा आदि वस्तु के स्थविष्ठ आदि दृष्टान्त साधन विकल हैं। साधन से रहित होने से विकल हैं क्योंकि स्थूलत्व, सूक्ष्मत्व आदि धर्मों के स्पष्टावभासित्व विद्यमान है अतः हेतु का विशेषण अस्पष्ट प्रकाशित्व दृष्टान्त में न होने से साधन विकल दृष्टान्त है। _ "उन स्थूलपना आदि धर्म में स्पष्टप्रकाशितपना भ्रान्त स्वरूप है"-ऐसा भी कहना उचित नहीं है . क्योंकि स्थूलत्व आदि धर्मों के स्पष्ट भासित्व में बाधक प्रमाण का अभाव है। सौगतानुयायी स्थूलत्व आदि. धर्मों के स्पष्ट भासित्व को अनुमान के द्वारा बाधित कर रहा है-तथापि-स्थूलत्व आदि धर्मों का प्रतिभास स्पष्ट नहीं है क्योंकि विकल्पात्मक है; जो विकल्प स्वरूप है- उसका प्रतिभास स्पष्ट नहीं होता है, जैसे विकल्प आदि अनुमान ज्ञान अर्थात् जैसे विकल्पात्मक होने से अनुमान स्मृति आदि ज्ञान स्पष्ट जानने वाले नहीं हैं। इस प्रकार स्थूल आदि धर्म स्पष्ट प्रतिभास अनुमान प्रमाण से बाधित है। जैनाचार्य कहते हैं कि सौगत का ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि इस अनुमान में प्रत्यक्ष सामने रखी हुई वस्तु में इन्द्रियजन्य ज्ञान के विकल्प से व्यभिचार आता है अर्थात् सन्मुख रखे हुये घट, पट आदि में इन्द्रियजन्य विकल्प ज्ञान स्पष्ट दिख रहा है परन्तु उसमें स्पष्टपने का अभाव साध्य नहीं है अत: बाधक अनुमान का हेतु व्यभिचारी है। प्रमाण ज्ञान का बाधक झूठा ज्ञान नहीं हो सकता है। बौद्ध कहता है कि “उस इन्द्रियजन्य विकल्प को पक्षकोटि में रख देने से व्यभिचार नहीं आता है अर्थात् स्थूलत्व आदि धर्म के समान इन्द्रियजन्य विकल्प भी स्पष्ट नहीं हैं अतः साध्य में हेतु के रहने से हेतु व्यभिचारी नहीं है" बौद्धों के इस कथन का खण्डन करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो तुम्हारा हेतु संभाव्यव्यभिचारी होता है क्योंकि विकल्पत्व का स्पष्टत्व के साथ कोई विरोध सिद्ध नहीं 1. व्यभिचार के सन्देह होने को संभाव्य व्यभिचारी कहते हैं।