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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 357 नीरूपेषु शशाश्वादिविषाणेष्वपि किं न सा तत्कल्पनासु सत्यासु स्वरूपेण तु सांजसा।' बहिर्वस्तुषु संख्याध्यवसीयमाना वासनामात्रहेतुका मिथ्याकल्पनात्मिकैवापेक्षिकत्वादिधर्मवदिति चेन्न, नीरूपेषु शशादिविषाणेष्वपि तत्प्रसंगात् / तत्कल्पनास्वस्त्येवेति चेत् तर्हि ता: कल्पना: स्वरूपेण सत्याः किं वा न सत्याः ? न तावदुत्तर: पक्षः स्वमतविरोधात् / कथमिदानीं स्वरूपेण सत्यासु कल्पनासु संख्या परमार्थतो न स्यात्, तास्वपि कल्पनांतरारोपितापेक्षिकत्वाविशेषात् / बहिर्वस्तुष्वेवेति चेत्, स्यादेवं यदि विकल्पनारोपितत्वेनापेक्षिकं व्याप्तं सिद्ध्येत्॥ न चापेक्षिकता व्याप्ता नीरूपत्वेन गम्यते / वस्तु सत्स्वपि नीलादिरूपेष्वस्याः प्रसिद्धितः॥१७॥ ___ जैनाचार्य कहते हैं कि-स्वरूप रहित शश शृंग या अश्व शृंग आदि में भी वह मिथ्या कल्पना स्वरूप संख्या क्यों नहीं होगी। यदि कहो कि वह कल्पनाओं में ही है तब तो संख्या वस्तुभूत क्यों नहीं होगी। वस्तुभूत कल्पनाओं से स्वीकृत संख्या भी स्पष्ट रूप से वास्तविक स्वरूप समझी जाएगी, काल्पनिक नहीं। “घट, पट आदि बाह्य वस्तुओं में निर्णीत संख्या वासनाओं के कारण उत्पन्न होने से, अपेक्षा से होने वाले स्थूलत्व, परत्व, अपरत्व, सूक्ष्मत्व आदि धर्मों के समान दो तीन आदि संख्या भी मिथ्या कल्पना स्वरूप है"- ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि सर्वथा स्वरूप रहित शश, अश्व आदि विषाणों में भी आपेक्षिक धर्मों के और उस संख्या के रहने का प्रसंग आयेगा। “यदि कहो कि कल्पनाओं में ही संख्या है ?" तो वे कल्पनायें अपने स्वरूप से सत्य हैं कि असत्य हैं ? (सत्य है कि सत्य नहीं है। इसमें उत्तर पक्ष कल्पना सत्य नहीं है) तो स्वमत का विरोध होने से युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि बौद्धों ने कल्पनाओं को स्वकीय कल्पना रूप शरीर से सत्य स्वीकार किया है अत: इस समय स्वरूप से सत्य कल्पनाओं में संख्या परमार्थ क्यों नहीं होगी ? अर्थात् प्रथम पक्ष के अनुसार कल्पनाओं को सत्य स्वीकार करने पर संख्या भी सत्य होगी। “बहिरंग वस्तुओं के समान उन स्वरूप सत्य कल्पनाओं में भी अन्य दूसरी कल्पनाओं से आरोपित आपेक्षिकता विशेषता रहित स्थित है अत: वे कल्पनाएँ कल्पित हैं और कल्पना से आरोपित द्वित्व त्रित्व आदि संख्या भी आपेक्षिक होने से कल्पित है।" सौगत के इस प्रकार कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तब हो सकता था कि यदि कल्पना द्वारा आरोपितपने करके आपेक्षिकपना व्याप्त सिद्ध हो जाता है परन्तु कल्पना से व्याप्त आपेक्षिकपना सिद्ध नहीं है। - आपेक्षिकता नि:स्वरूपपने से व्याप्त हो रही नहीं जानी जा रही है क्योंकि वास्तवरूप से, वस्तु रूप से, सत्स्वरूप नील आदि में भी इस आपेक्षिकपने की सिद्धि है अर्थात् नील आदि रंग में भी रंग की तरतमता (नीलतर, नीलतम) गधे के सींग के समान नि:स्वरूप नहीं है॥१७॥ 1- नीरूपेषु शश्वादिविषाणेष्वपि किं न सा। तत्कल्पनासु सत्यासु स्वरूपेण तु सांजसा // 17|| मा. प्र. में यह श्लोक रूप में है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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