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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 356 संख्यासंप्रत्यय: संख्याप्रतिबद्धलिंगस्य प्रत्यक्षसिद्धस्याभावात् / तत एव न शाब्दोऽयं प्रत्यक्षानुमानमूलः / योगिप्रत्यक्षमूलोऽयमिति चेन्न, तस्य तथावगंतुमशक्यत्वात् / ततोऽयं मिथ्याप्रत्ययो निरालंबन एवेति केचित् , तेषां तस्य दिशाविनियमो न स्यात् / कारणरहितत्वादन्यानपेक्षणात् सर्वदा सत्त्वमसत्त्वं वा प्रसज्येत / निरालंबनोपि समनंतरप्रत्ययनियमात् प्रतिनियतोयमिति चेन बहिः संख्यायाः प्रतिनियताया प्रतीयते॥ वासनामात्रहेतुश्चेत्सा मिथ्याकल्पनात्मिका / वस्तु सापेक्षिकत्वेन स्थविष्ठत्वादिधर्मवत्॥१६॥ ___ संख्या का समीचीन ज्ञान हेतुजन्य अनुमान स्वरूप भी नहीं है अर्थात् अनुमान प्रमाण से भी संख्या नहीं जानी जाती है क्योंकि संख्या रूप साध्य के साथ व्याप्ति को रखने वाले और प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध हेतु का अभाव है। प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुमान ज्ञान है मूल कारण जिसका, ऐसा शाब्द बोध (आगमज्ञान) भी संख्या को विषय करने वाला नहीं है अर्थात् संख्या का ज्ञान शाब्द बोध (आगम रूप) भी नहीं है। . “यह संख्या योगी प्रत्यक्ष के मूल शाब्द ज्ञान का विषय है ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि उस आगम को सर्वज्ञ को मूल मान कर प्रवर्त्तना जानने के लिए अशक्यता है क्योंकि सभी अपने-अपने आगमों को सर्वज्ञ प्रतिपादित मानते हैं किन्तु इसका निर्णय नहीं किया जा सकता है अतः प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीनों ज्ञान संख्या को विषय नहीं करते हैं इसलिए यह संख्या मिथ्या प्रत्यय (मिथ्याज्ञान) है, निरालंब है (ज्ञेय विषय से रहित है) ऐसा कोई कहता है ? अब इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर संख्या कारण रहित होने से और अन्य की अपेक्षा रहित होने से संख्या ज्ञान के उपदेश का विशेष नियम नहीं हो सकेगा। कारण रहित और अपेक्षा रहित होने से सर्वदा सत् या असत् का प्रसंग आयेगा अर्थात् यदि एक पदार्थ में दो चार आदि का ज्ञान होगा तो संख्या ज्ञान के नियत रहने की व्यवस्था नहीं रहेगी। तथा आलम्बन रहित होने से किसी से किसी क भी ज्ञान हो सकता है, परन्तु संख्या का ज्ञान अवस्थित नहीं है। . बौद्ध कहता है कि निरालम्ब होता हुआ भी संख्या का ज्ञान अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञान होने से नियम से प्रतिनियत है अर्थात् अनादिकालीन वासनाजन्य अव्यवहित पूर्व समयों में संख्या का ज्ञान अपने उपादान कारणवश, वहीं पर उसी समय संख्या का ज्ञान करा देता है, सर्वत्र सर्वदा नहीं कराता है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्धों का ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि प्रतिनियत संख्या से बहिर्भूत संख्या का ज्ञान प्रतीत हो रहा है। अथवा परिगणित जीवादि पदार्थों में प्रतिनियत संख्यावान से कथञ्चित् बहिर्भूत संख्या की प्रतीति हो रही है अत: मिथ्या वासना के कारण संख्या काल्पनिक नहीं है। पुन: बौद्ध कहता है कि जैसे यह इससे लम्बा है, यह इससे अधिक मधुर है, इत्यादि बड़ा, छोटा आदि धर्म जैसे आपेक्षिक होने से काल्पनिक हैं वैसे ही दो तीन आदि संख्याओं का ज्ञान भी वासनामात्र हेतुओं से उत्पन्न होने से मिथ्या कल्पना स्वरूप है, वास्तविक नहीं है अर्थात् जो वस्तुभूत होते हैं वे दूसरों की अपेक्षा नहीं करते हैं जैसे रूप, रस, सुख आदि पदार्थ परन्तु दो, तीन आदि संख्या अपेक्षाकृत है अत: वास्तविक नहीं है॥१६॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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