________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 355 संख्यादिवचनैर्विषयीक्रियते तेषामसत्त्वप्रसंगात् / सतां न तेषां निर्विषयीकरणे सिद्धं / सद्वचनेनापि विषयीकरणमिति तदेव सर्वविषयत्वेन महाविषयं ततो न पुनरुक्तम्॥ गत्यादिमार्गणास्थानैः प्रपंचेन निरूपणम् / मिथ्यादृष्ट्यादिविख्यातगुणस्थानात्मकात्मनः॥ 14 // कृतमन्यत्र प्रतिपत्तव्यमिति वाक्यशेषः / सोपस्कारत्वात् वार्तिकस्य सूत्रवत्। संख्या संख्यावतो भिन्ना न काचिदिति केचन / संख्यासंप्रत्ययस्तेषां निरालंबः प्रसज्यते // 15 // नैव संख्यासंप्रत्ययोस्तींद्रियजः तत्रैकस्मिन् स्वलक्षणप्रतिभासमाने स्पष्टमेकत्वसंख्यायाः प्रतिभासनाभावात् / न हीदं स्वलक्षणमियमेकत्वसंख्येति प्रतिभासद्वयमनुभवामः / नापि लिंगजोऽयं यदि “सत्त्व स्वरूप संख्यादिक का वचनों के द्वारा विषय (कथन) किया जाता है"- ऐसा कहोगे तो सत्त्व का ही संख्या आदि वचनों के द्वारा विषय (कथन) किया गया है"-ऐसा सिद्ध होता है। इस प्रकार सत्प्ररूपणा ही सर्व पदार्थों को विषय करने वाली होने के कारण महाविषयवाली है अतः सत्वचन पुनरुक्त नहीं हैं। गतिइन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व, और आहारक इन चौदह मार्गणास्थानों के द्वारा और मिथ्यादृष्टि, सासादन-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरति सम्यग्दृष्टि, देश संयत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशांत मोह, क्षीणमोह, सयोग केवली और अयोग केवली इन चौदह गुणस्थानों में स्थित जीवों की विस्तार रूप से प्ररूपणा करनी चाहिए। अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में कौनसी गति का अस्तित्व है? कौन सी इन्द्रिय है? कौन सी काय है? इत्यादि का विस्तृतरूप से कथन करना चाहिए // 14 // ... सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक सत्प्ररूपणा का कथन किया गया है-वहाँ से जान लेना चाहिए। यह वाक्यविशेष ऊपर के श्लोक में लगा लेना चाहिए क्योंकि सूत्र के समान वार्तिक भी अपने अर्थ को व्यक्त करने के लिए सोपस्कारक (यथायोग्य परिशिष्ट वाक्यों का आकर्षण करने वाले) होते हैं। . कोई कहता है कि- संख्यावान पदार्थ से कोई भी संख्या भिन्न नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर संख्या के निरालंब ज्ञान का प्रसंग आता है अर्थात् गगन कुसुम के समान संख्या भी ज्ञान के विषय से रहित हो जायेगी॥१५॥ बौद्ध : पदार्थ से भिन्न संख्या का समीचीन ज्ञान इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय तो नहीं है, क्योंकि इन्द्रियजन्य एक प्रत्यक्ष में स्वलक्षण के स्पष्टरूप से प्रतिभासित हो जाने पर एकत्व संख्या का पृथक् प्रतिभास होने का अभाव है अर्थात् स्वलक्षण के प्रतिभास में अन्य संख्या का प्रतिभास नहीं हो सकता क्योंकि “यह स्वलक्षण तत्त्व है, और यह उसकी एकत्व संख्या है," इस प्रकार दो प्रतिभासों का हम अनुभव नहीं कर रहे हैं।