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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 354 सद्वचनं पुनः सर्वविषयमिति महाविषयत्वं / सत्त्वमपि निर्दिश्यमानं निर्देशवचनेन विषयीक्रियमाणं न तस्याविषय इति चेन्न, स्वामित्वादिवचनविषयसत्त्वस्य तदविषयत्वात् / किं सदिति हि प्रश्ने स्यादुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति निर्देशवचनं, न पुनः कस्य सत् केन कस्मिन् कियच्चिरं किं विधानमिति प्रश्नवतरति तत्र स्वामित्वादिवचनानामेवावतारात् / नैवं, सद्वचनं किमित्यनुयोग एव प्रवर्तते सर्वथा सर्वानुयोगेषु तस्य प्रवृत्तेः। संख्यादिवचनविषये सद्वचनस्याप्रवृत्तेर्न सर्वविषयत्वमिति चेन्न, तस्यासत्त्वप्रसंगात्। न ह्यसंत एव संख्यादयः और निर्देश वचन तो शब्दों के द्वारा कथित वस्तु को ही विषय करता है, स्वामित्व, साधन, संख्या आदि का कथन नहीं करता है परन्तु सत्प्ररूपणा निर्देश, स्वामित्व,साधन, संख्या, द्रव्य, गुण, पर्याय आदि सब ही को विषय करता है निर्देश का विषय अल्प है और सत्ता का विषय महान् है अतः सत्ता का कथन पुनरुक्तदोष से युक्त नहीं है। ___ “शब्द के द्वारा निर्दिष्ट सत्ता भी निर्देश वचन के द्वारा विषय किया गया होने से निर्देश वचन का अविषय नहीं है अर्थात् जिस प्रकार सत् व्यापक है, संख्या आदि सभी में रहता है, उसी प्रकार निर्देश भी संख्या आदि को विषय करने वाला होने से महा विषय वाला होकर व्यापक है"-ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि स्वामित्व, साधन आदि को विषय करने वाली सत्ता उस निर्देश वचन का व्याप्य होकर विषय नहीं है। सत्ता किसे कहते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-उत्पादव्यय ध्रौव्य से युक्त को सत् कहते हैं अर्थात् जिसमें निरंतर उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता रहता है-उसको सत् कहते हैं। यह निर्देश वचन ही उत्तर हो सकता है परन्तु सत् किसका है ? सत् का स्वामी कौन है ? किस कारण से सत् उत्पन्न होता है ? सत् का साधन क्या है ? सत् कहाँ रहता है ? सत् का अधिकरण क्या है ? सत् कितने काल तक (स्थिति) रहता है ? और सत् का विधान (प्रकार) क्या है ? इस प्रकार प्रश्नों का अवतार (उत्पन्न) होने पर 'सत् का स्वामी, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान आदि वचनों का निर्देश रूप से उत्तर नहीं हो सकता अर्थात् स्वामित्व है, साधन है, आदि वचनों की उत्पत्ति होती है-इसलिए निर्देश आदि छह प्ररूपणा हैं। निर्देश आदि क्या हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर केवल निर्देश को ही सत् वचन की प्रवृत्ति नहीं होती है अपितु स्वामित्व, साधन, अधिकरण आदि के सभी प्रश्नों में सत् वचन की प्रवृत्ति होती है अतः सत् प्ररूपणा व्यापक है- और निर्देश व्याप्य है। सत् सामान्य है और निर्देश विशेष है इसलिए सत् और निर्देश का पृथक्पृथक् वर्णन किया गया है। ___“निर्देश करने योग्य संख्या, क्षेत्र आदि के कथन के विषय में सत् वचन की प्रवृत्ति नहीं होती हैअतः सत्ता के सर्व विषयपना (सर्व पदार्थों को विषय करने वाली) नहीं हो सकता"-ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि संख्यादि वचनों के द्वारा असत् संख्यादि का विषय नहीं किया जाता है। अर्थात् असत् (अभाव) रूप संख्या, क्षेत्र आदि का वचनों के द्वारा कथन नहीं हो सकता अन्यथा (यदि असत्त्व का विषय किया जायेगा तो) संख्या आदि के असत्त्व का प्रसंग आयेगा।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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