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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 353 युक्तमतिप्रसंगात् / सत्सु तन्निरूपणे सत्प्ररूपणमेवादौ प्रेक्षावतां युक्तमिति निराकुलम्॥ निर्देशवचनादेतद्भिन्नं द्रव्यादिगोचरात् / सन्मात्रविषयीकुर्वदर्थानस्तित्वसाधनम् // 13 // निर्देशवचनात्सत्त्वसिद्धेः सद्वचनं पुनरुक्तमित्यसारं, निर्देशवचनस्य द्रव्यादिविषयत्वात् सद्वचनस्य सन्मात्रविषयत्वात् भिन्नविषयत्वेन ततस्तस्य पुनरुक्तत्वासिद्धेः / न हि यथा जीवादयोसाधारणधर्माधारा: प्रतिपक्षव्यवच्छेदेन निर्देशवचनस्य विषयास्तथा सद्वचनस्य तेन सर्वद्रव्यपर्यायसाधनेन सत्त्वस्याभिधानात् / तस्यापि स्वप्रतिपक्षासत्त्वव्यवच्छेदेन प्रवृत्तेरसाधारणविषयत्वमेवेति चेन्न, असत्त्वस्य संदतररूपत्वेन सद्वचनादव्यवच्छेदात् भवदपि सामर्थ्यान्नास्तित्वसाधनं सद्वचनं सप्रतिपक्षव्यवच्छेदेन सन्मात्रगोचरं निर्देशवचनाद्भिन्नविषयमेव ततो महाविषयत्वात् / निर्दिश्यमानवस्तुविषयं हि निर्देशवचनं न स्वामित्वादिविषयं, है क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् असत् कल्पना कर लेने पर आकाश के फूल, गधे के सींग आदि के भी सत्प्ररूपणा की कल्पना करने का प्रसंग आयेगा। . यदि 'सत्' रूप का ही निरूपण किया जाता है ऐसा मानते हैं तो विद्वज्जनों (विचारशील पुरुषों) को सर्वप्रथम सत्प्ररूपणा का कथन करना ही उचित है। यह निराकुल होकर सिद्ध कर दिया गया है। केवल द्रव्यादिगोचर (केवल स्थूल द्रव्य या सदृश व्यंजन पर्याय रूप कतिपय पदार्थों को विषय करने वाले) निर्देश वचन से यह सर्व वस्तुभूत अर्थों की केवल सत्ता को विषय करता हुआ अस्तित्व को सिद्ध करने वाला सत्ता का प्ररूपण पृथक् है॥१३॥ ___ “सूत्र में कथित निर्देशवचन से सत्त्व की सिद्धि हो जाने से पुनः ‘सत् संख्या' इस सूत्र के द्वारा सत्ता का निरूपण करना पुनरुक्त है।" ऐसा कहना सार रहित है क्योंकि निर्देश वचन का द्रव्य, गुण, क्रिया आदि विषय है अर्थात् द्रव्य, गुण आदि विशेषों का विषय करना निर्देश है; जैसे यह आत्मा है, यह ज्ञान है, इत्यादि और अभेदरूप से सत्ता मात्र का विषय करना 'सत्' का प्ररूपण है अत: दोनों का भिन्न-भिन्न विषय होने से सत् की प्ररूपणा के पुनरुक्त की असिद्धि है क्योंकि जैसे असाधारण धर्मों के आधार कतिपय जीवादि पदार्थ प्रतिकूल पक्ष की व्यावृत्ति करके निर्देश वचन के विषय हैं, उसी प्रकार असाधारण धर्म के आधारभूत जीवादि पदार्थ 'सत्' वचन के विषय नहीं हैं क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्य, गुण और पर्यायों में व्याप कर रहने वाली सामान्य सत्ता का 'सत्' शब्द के द्वारा कथन किया जाता है अर्थात् निर्देश का विषय विशेष है और 'सत्' का विषय सामान्य है। यही दोनों में भेद है। - “सत् वचन की स्व प्रतिपक्षी असत्ता की व्यावृत्ति करके ही प्रवृत्ति होती है, अत: वह भी सम्पूर्ण सत् असत् पदार्थों में नहीं रहने से असाधारण सत् पदार्थों का ही विषय है"-ऐसा भी कहना उचित नहीं है-क्योंकि असत्ता तुच्छाभाव रूप पदार्थ नहीं है अपितु असत्त्व के भी दूसरे सत्त्व रूप से व्यवस्थित होने से असत्त्व का सत् वंचन से व्यवच्छेद नहीं होता है अर्थात् असत्त्व भी किसी रूप से सत्त्व है। अथवा-अर्थापत्ति प्रमाण के सामर्थ्य से प्रतिपक्षी के नास्तित्व को सिद्ध करने वाला और स्वकीय प्रतिपक्षी के व्यवच्छेद करके केवल सत्ता का विषय करने वाला 'सत्' वचन निर्देश वचन से भिन्न विषय वाला ही है क्योंकि कतिपय द्रव्य, गुण पर्याय का कथन करने वाले निर्देश से सत्ता महाविषय वाली है
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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