________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 360 . स्पष्टसंख्यानुभवाभावे तदनुसारी विकल्पः पाश्चात्यो युक्तः, पीतानुभवाभावे पीतविकल्पवत्। तदभिलाषविकल्पे वासना तस्माद्युक्त एवेति चेत् तर्हि पीतादिविकल्पोपि तत एवेति न पीताद्याकारो वास्तवोर्थेषु संख्यावदिति नीरूपत्वं / सत्येंद्रियज्ञानेवभासनात् पीताद्याकारो वास्तव एवेति चेत् तत एव संख्या वास्तवी किं न स्यात् / न हि सा तत्र नावभासते तदवभासाभावात् कस्यचित्तदक्षव्यापारांतरांतरं तदनिश्चयात् तदविज्ञाने तस्याः प्रतिभासनमिति चेत्, तत एव पीताद्याकार: स्यात्तत्र तन्मा भूत् / यदि पुनरभ्यासादिसाकल्ये सर्वस्याक्षव्यापारांतरं प्रसिद्ध नहीं है। यदि वहाँ स्पष्ट संख्या के अनुभव का अभाव माना जायेगा तो उस अनुभव के अनुसार होने वाला पिछला विकल्प ज्ञान युक्त कैसे होगा ? जैसे पीत के अनुभव के अभाव में पीछे पीत का विकल्प ज्ञान नहीं हो सकता। “संख्या के विकल्प में अथवा शब्द योजना के विकल्प में वासना लगी रहती है। उस वासना के कारण अवस्तुभूत संख्या का विकल्पज्ञान उत्पन्न होना युक्त ही है। बौद्ध के इस प्रकार कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो असत्य वासनाओं के कारण पीत, नील आदि का भी विकल्प ज्ञान उत्पन्न हो सकता है। क्योंकि सौगत द्वारा स्वीकृत स्वलक्षण अर्थों में पीत आदि आकार भी वास्तविक नहीं हो सकते, जैसे कि पदार्थों में वे संख्या वास्तविक नहीं मान रहे हैं, इस तरीके तो पीतादिक आकार भी नि:स्वरूप हो जाएंगे अथवा पीत नीलादि आकारों से रहित वह स्वलक्षण नि:स्वरूप हो जाएगा जो बौद्धों को इष्ट नहीं है। ___यदि कहो कि इन्द्रियजन्य सत्य ज्ञान में प्रकाशित होने के कारण पीत, नील आदि आकार वास्तविक हैं, तब तो सत्य इन्द्रियजन्य ज्ञान में प्रतिभासित होने के कारण संख्या भी वास्तविकी क्यों नहीं होगी। वह संख्या उस सत्य इन्द्रियजन्य ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होती है-ऐसा नहीं समझना चाहिए क्योंकि ऐसा मानने पर जगत् प्रसिद्ध उस संख्या के प्रतिभास का अभाव हो जाएगा। यदि कहो कि किसी-किसी पुरुष के इन्द्रिय व्यापारान्तर संख्या का निश्चय नहीं हो पाता है इसलिए उस इन्द्रियजन्य ज्ञान में उस संख्या का प्रतिभास होना नहीं माना है। तब तो किसी मनुष्य को इन्द्रिय व्यापार के अनन्तर पीतादि का शीघ्र निर्णय नहीं होता है, अत: इन्द्रियजन्य ज्ञान में पीतादि का प्रतिभास भी नहीं मानना चाहिए। यदि पीतादि का प्रतिभास वास्तविक है तो संख्या का प्रतिभास भी वास्तविक होगा। यदि कहो कि पुनः अभ्यास आदि सकल कारणों की पूर्णता होने से सभी प्राणियों को इन्द्रिय व्यापार के अनन्तर पीतादि आकारों में निश्चय उत्पन्न हो जाता है अत: उस इन्द्रियजन्य ज्ञान में उन वस्तुभूत पीतादि आकारों का प्रतिभास है, तब तो अभ्यास आदि सामग्री की पूर्णता होने पर संख्या का सभी को निश्चय हो जाने से संख्या की ज्ञप्ति भी इन्द्रियजन्य ज्ञान में मान लेना चाहिए क्योंकि अभ्यास आदि कारणों की समग्रता होने पर सभी जीवों के अक्ष व्यापार द्वारा संख्या का निर्णय हो जाना असिद्ध नहीं है तथा पीतादि आकारों से संख्या में कोई विशेषता नहीं है अर्थात् पीतादि आकारों के समान संख्या भी वस्तुभूत है।