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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 24 तदिति चेत्, द्रव्यतः पर्यायतो वा ? द्रव्यतश्चेत् सिद्धसाध्यता। पर्यायतस्तु तस्य नित्यत्वे सततसंवेदन प्रसंग:। नित्यं तदनंतत्वाज्जीवद्रव्यवदिति चेत् न, केवलज्ञानादिभिर्व्यभिचारात् / तेषामपि पक्षीकरणे मोक्षस्य नित्यत्वप्रसक्तेः क्व संसारानुभव: ? न च मोक्षकारणस्य सम्यग्दर्शनादित्रयात्मकस्यानित्यत्वेपि मोक्षस्यानित्यत्वमुपपद्यते, मोक्षस्यानंतत्वेपि च सादित्वे सम्यक्त्वादीनामनंतत्वेपि सादित्वं कथं न भवेत् ? ततो नोत्पद्यत इति क्रियाध्याहारविरोधः। एतेनाहेतुकं सद्दर्शनमिति निरस्तं। नित्यहेतुकं तदित्यप्ययुक्तं, मिथ्यादर्शनस्यास्वसद्भावप्रसंगात् तत्कारणस्य सद्दर्शनकारणे विरोधिनि सर्वदा सति संभवादनुपपत्तेः येन च तन्नित्यं नापि नित्यहेतुकं नाहेतुकं। अतः नित्य है, ऐसा अर्थ हो जायेगा। ऐसा कहने वाले से आचार्य कहते हैं कि वह सम्यग्दर्शन द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है कि पर्याय की अपेक्षा से? यदि द्रव्य की अपेक्षा सम्यग्दर्शन को नित्य कहते हो तो सिद्धसाध्यता है। अर्थात् सम्यग्दर्शन आत्मा का गुण है। गुण गुणी से भिन्न नहीं होता, अत: आत्मा के नित्य होने से सम्यग्दर्शन भी नित्य है-ऐसा हम मानते हैं। इसलिए आपका कथन सिद्धसाध्य दोष से दूषित है। पर्याय दृष्टि से उसके नित्यपना मानने पर सतत वेदन का प्रसंग आता है (परन्तु सम्यग्दर्शन का सतत वेदन नहीं होता है)। जीव द्रव्य के समान सम्यग्दर्शन अनन्त काल तक रहता है। इसलिए नित्य है, ऐसा भी नहीं कह सकते। क्योंकि ऐसा कहने पर केवलज्ञानादि के साथ व्यभिचार आता है। अर्थात् केवलज्ञानादि अनन्त काल तक रहते हैं, परन्तु नित्य नहीं है' अत: जो अनन्त काल तक रहता है वह नित्य है-ऐसा घटित नहीं होता। तथा केवलज्ञानादि क्षायिक भावों के भी नित्यत्व स्वीकार कर लेने पर मोक्ष के भी नित्यत्व का प्रसंग आता है और मोक्ष को नित्य मान लेने पर संसार का अनुभव कहाँ, कैसे होगा अर्थात् सभी मुक्त हो जायेंगे। तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रात्मक त्रयात्मक मोक्ष के कारणों में अनित्यपना होने पर भी मोक्ष के अनित्यपना नहीं उत्पन्न होता है। मोक्ष के अनन्तत्व होकर सादित्व है तो मोक्ष के समान सम्यक्त्व आदि के अनन्तत्व होने पर उनके सादित्व कैसे नहीं हो सकता ? अर्थात् अवश्य ही होता है। इसलिए ‘नोत्पद्यते' इस क्रिया का अध्याहार विरुद्ध है। इस पूर्वोक्त कथन से, सम्यग्दर्शन के अहेतुकपने का भी खण्डन कर दिया गया है। अर्थात् निसर्गज और अधिगमज शब्द से सम्यग्दर्शन कारणों से उत्पन्न होता है, बिना कारण नहीं होता, सूचित किया है। सम्यग्दर्शन नित्य कारणों से उत्पन्न होता है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन को नित्य हेतुक मान लेने पर आत्मा में मिथ्यादर्शन के असद्भाव का प्रसंग आता है, क्योंकि मिथ्यादर्शन के विरोधी सम्यग्दर्शन के कारणों के नित्य (सर्वकाल) विद्यमान रहने पर मिथ्यादर्शन की उत्पत्ति का प्रसंग ही नहीं आयेगा। इसलिए सम्यग्दर्शन न नित्य है, न नित्यहेतुक है और न अहेतुक है अपितु स्याद्वाद की सिद्धि से नित्य, अनित्य आदि सप्त भंग से सिद्ध है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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