SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 23 श्रद्धाता निराकुलं न स्यात्। भ्रांतेयमात्मनि प्रतीतिरिति चेन्न, बाधकाभावात् / नात्मधर्मः श्रद्धानं भंगुरत्वाद्घटवदित्यपि न तद्बाधकं, ज्ञानेन व्यभिचारित्वात्। न च ज्ञानस्यानात्मधर्मत्वं युक्तमात्मधर्मत्वेन प्रसाधितत्वात्। तत: सूक्तमात्मस्वरूपं दर्शनमोहरहितं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनस्य लक्षणमिति / / न सम्यग्दर्शनं नित्यं नापि तन्नित्यहेतुकम् / नाहेतुकमिति प्राह द्विधा तजन्मकारणम् // तनिसर्गादधिगमाद्वा // 3 // उत्पद्यत इति क्रियाध्याहारान्न नित्यं सम्यग्दर्शनं ज्ञायत इति। नोत्पद्यत इति क्रियाध्याहारान्नित्यं जैसे घट, पटादि जड़ पदार्थों को "मैं श्रद्धान करने वाला हूँ" ऐसी प्रतीति नहीं होती, उसी प्रकार अचेतन प्रधान (प्रकृति) को भी मैं श्रद्धाता (श्रद्धान करने वाला) हूँ -ऐसी प्रतीति करना कभी संभव नहीं है, जिससे यह आत्मा ही श्रद्धाता निर्द्वन्द्व रूप से सिद्ध नहीं हो, अर्थात् आत्मा ही निर्द्वन्द्व रूप से श्रद्धाता सिद्ध होती है। आत्मा में श्रद्धान गुण को सिद्ध करने वाली यह प्रतीति भ्रान्त (भ्रम) रूप है, (वास्तविक नहीं है)ऐसा कहना उचित नहीं है... क्योंकि आत्मा में श्रद्धानगुण की प्रतीति में बाधक प्रमाण का अभाव है। अर्थात् आत्मा में श्रद्धान गुण की प्रतीति होती है-इसका खण्डन करने वाला प्रत्यक्षादि कोई प्रमाण नहीं है। / श्रद्धान, घटादि के समान नाशवन्त होने से आत्मधर्म नहीं है अर्थात् श्रद्धान गुण नष्ट होता है, नित्य नहीं रहता अत: घटादि नाशवन्त पदार्थ के समान श्रद्धान भी आत्मा का गुण नहीं है इसलिए आत्मा में श्रद्धान गुण की प्रतीति अनुमान बाधित है। ऐसा कहने वाले का अनुमान भी प्रतीति का बाधक नहीं है, क्योंकि यह क्षणभंगुरत्व हेतु ज्ञान के साथ अनैकान्तिक है अर्थात् ज्ञान भी कूटस्थ नित्य नहीं है, परिवर्तनशील है, फिर भी आत्मा का धर्म है। परन्तु ज्ञान को अनात्म धर्म मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान के आत्मधर्मत्व को पूर्व में सिद्ध किया गया है। अर्थात्-ज्ञान आत्मा का धर्म है, यह पूर्व में सिद्ध किया है। अतः सिद्ध हुआ कि दर्शनमोह रहित तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन का लक्षण आत्मा का स्वरूप है, प्रकृति का नहीं। अब सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के कारण कहते हैं सम्यग्दर्शन नित्य (अनादिकालीन) नहीं है, सम्यग्दर्शन नित्य हेतु भी नहीं है अर्थात्-उसको उत्पन्न करने वाले कारण भी नित्य नहीं हैं और अहेतुक भी नहीं है अर्थात् बिना कारण के भी वह उत्पन्न नहीं होता है। उसकी उत्पत्ति के दो कारण हैं। उनको अग्रिम सूत्र द्वारा कहते हैं: वह सम्यग्दर्शन निसर्ग (स्वभाव)और अधिगम(परोपदेश) दो प्रकार से उत्पन्न होता है // 3 // "उत्पद्यते" इस क्रिया का अध्याहार करने से “सम्यग्दर्शन नित्य नहीं है" ऐसा जाना जाता है। 'नोत्पद्यते' इस प्रकार अध्याहार करने पर तो सम्यग्दर्शन नित्य हो जायेगा। अर्थात् उत्पद्यते क्रिया का अध्याहार न करके "नोत्पद्यते" ऐसा कहने पर सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगम से उत्पन्न नहीं होता। १.सूत्र में जो क्रिया नहीं है प्रसंगवश अस्ति, भवति, उत्पद्यते, वर्त्तते आदि क्रिया ऊपर से ली जाती है, उसको अध्याहार कहते हैं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy