________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 22 तथैवेंद्रियसम्यक्त्वान्मनः सम्यगुपेयताम् / इंद्रियालोचितार्थेषु मनःसंकल्पनोदयात् // 17 // इंद्रियाणि च सम्यञ्चि भवंतु परतस्तव। स्वाभिव्यंजकसम्यक्त्वादिभिः सम्यक्त्वतः किमु // 18 // अर्थस्वव्यंजकाधीनं मुख्यं सम्यक्त्वमिष्यते / इंद्रियादिषु तद्वत्स्यात् पुंसि तत्परमार्थतः / / 19 / / एवं प्रधानसम्यक्त्वाच्चैतन्यसम्यक्त्वेऽभ्युपगम्यमानेऽतिप्रसंजनमुक्तं / तत्त्वतस्तुन च प्रधानधर्मत्वं श्रद्धानस्य चिदात्मनः / चैतन्यस्यैव संसिद्ध्येदन्यथा स्याद्विपर्ययः // 20 // चिदात्मकत्वमसिद्धं श्रद्धानस्येति चेन्न, तस्य स्वसंवेदनतः प्रसिद्धर्ज्ञानवत्। साधितं ज्ञानादीनां चेतनात्मकत्वं पुरस्तात्॥ न श्रद्धत्ते प्रधानं वा जडत्वात्कलशादिवत् / प्रतीत्याश्रयणे त्वात्मा श्रद्धातास्तु निराकुलम् // 21 // न हि श्रद्धाताहमिति प्रतीतिरचेतनस्य प्रधानस्य जातुचित्संभाव्यते कलशादिवत् / यतोयमात्मैव के विषयभूत अर्थों का ही बुद्धि के द्वारा निर्णय होता है तथा अहंकार के परिणमन रूप मन की समीचीनता से अहंकार भी सम्यग् क्यों नहीं होगा ? क्योंकि मन के द्वारा संकल्पित अर्थों में ही अहंकार की प्रवृत्ति होती है॥१५-१६॥ और, इन्द्रियों के सम्यक्त्व से मन भी सम्यक्त्व को प्राप्त होगा क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा आलोचित पदार्थों में ही मन के संकल्पन का उदय होता है॥१७॥ तुम्हारे (सांख्य) मतानुसार इन्द्रियाँ भी समीचीन पर से ही होंगी, क्योंकि स्व को प्रकट करने वाले कारणों की समीचीनता, निर्मलता, इन्द्रियवृत्ति, अदृष्ट आदि के द्वारा इन्द्रियों की समीचीनता दूसरे से ही आई है। ऐसा क्यों नहीं माना जाए, यदि इन्द्रिय आदि (मन, अहंकार, बुद्धि और प्रधान) में अपने अभिव्यक्त के आधीन (स्वकीय व्यञ्जक) मुख्य अर्थ को सम्यक्त्व कहोगे तो इन्द्रियादि के समान आत्मा में ही परमार्थ समीचीनता माननी चाहिए। अर्थात् जैसे प्रधान, बुद्धि, अहंकार, मन, इन्द्रियाँ अपने अर्थ की अभिव्यञ्जक स्वयं हैं, अतः स्वयं समीचीनता को प्राप्त होती हैं और उनका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, उनके समान आत्मा में परमार्थतः समीचीनता क्यों नहीं होगी ? // 18-19 // ___ इस प्रकार प्रधान के सम्यक्त्व से चैतन्य में सम्यक्त्व स्वीकार करने पर अतिप्रसंग दोष आता है। तत्त्व से विचार किया जाए तो चिदात्म श्रद्धान को प्रधान (प्रकृति) का धर्मत्व नहीं कह सकते, किन्तु श्रद्धान चैतन्य के ही सिद्ध होता है। अन्यथा (ऐसा न मानने पर) विपरीतता आती है॥ 20 // श्रद्धान के चिदात्मकत्व मानना असिद्ध है-ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि जैसे ज्ञान चेतनस्वरूप है, वैसे ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होने से श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) के भी चेतनत्व प्रसिद्ध है। तथा ज्ञान, दर्शन आदि के चेतनत्व की सिद्धि पहले प्रकरण में कर चुके हैं। घट, पट आदि के समान जड़त्व (अचेतन) होने से प्रधान (प्रकृति) के श्रद्धानत्व घटित नहीं होता। अतः प्रतीति का आश्रय लेने पर आत्मा ही निर्दोष श्रद्धाता (श्रद्धान करने वाला) सिद्ध होता है॥२१॥