________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 21 सर्वेषु सरागेषु सद्दर्शनं प्रशमादिभिरनुमीयत इत्यनभिधानात्, यथासंभवं सरागेषु वीतरागेषु च सद्दर्शनस्य तदनुमेयत्वमात्मविशुद्धिमात्रत्वं चेत्यभिहितत्वात् / तत एव सयोगकेवलिनो वाग्व्यवहारविशेषदर्शनात् सूक्ष्माद्यर्थविज्ञानानुमानं न विरुध्यते। प्रधानस्य विवर्तोऽयं श्रद्धानाख्य इतीतरे। तदसत्पुंसि सम्यक्त्वभावासंगात्ततो परे // 13 // न हि प्रधानस्य परिणाम: श्रद्धानं ततोऽपरस्मिन् पुरुषे सम्यक्त्वमिति युक्तं लक्ष्यलक्षणयोर्भिन्नाश्रयत्वविरोधादग्न्युष्णत्ववत्।। / प्रधानस्यैव सम्यक्त्वाच्चैतन्यं सम्यगिष्यते। बुद्ध्यध्यवसितार्थस्य पुंसा संचेतनाद्यदि // 14 // तदाहंकारसम्यक्त्वात् बुद्धेः सम्यक्त्वमश्नुते। अहंकारास्पदार्थस्य तथाप्यध्यवसानतः // 15 // मनःसम्यक्त्वतः सम्यगहंकारस्तथा न किम्। मनःसंकल्पितार्थेषु तत्प्रवृत्तिप्रकल्पनात् // 16 // कोई भी व्यापार (क्रिया) नहीं है, क्योंकि उनके चलना आदि क्रिया मान लेने पर अप्रमत्तत्व का विरोध आता है। अर्थात् शरीर आदि की क्रिया अप्रमत्त अवस्था में नहीं हो सकती है। आचार्य कहते हैं, इस प्रकार कहने वाला हमारे अभिप्राय को जानने वाला नहीं है क्योंकि “सारे ही सरागी मानवों का सम्यग्दर्शन प्रशम आदि के द्वारा जाना जाता है" -ऐसा हमारा अभिमत नहीं है, अपितु, सरागी और वीतरागी सर्व सम्यग्दृष्टियों में सम्यग्दर्शन का अनुमेयत्व आत्मविशुद्धि मात्र ही है, ऐसा हमारा अभिप्राय है। इसलिए ही सयोगकेवली के वचन-व्यवहार-विशेष के देखने से सूक्ष्माद्यर्थ के विज्ञान का अनुमान विरुद्ध भी नहीं है। अर्थात् केवली भगवान के विशिष्ट वचनों के द्वारा प्रभु के सूक्ष्मादि अर्थों के ज्ञान (सर्वज्ञता) का अनुमान कर लिया जाता कोई (सांख्य) कहता है कि-तत्त्वार्थ श्रद्धान नामक गुण रज, सत्व और तमो गुण की साम्य अवस्थारूप प्रधान (प्रकृति) की पर्याय है परन्तु उनकी यह धारणा प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि प्रधान से सर्वथा भिन्न आत्मा में सम्यक्त्व का सद्भाव नहीं हो सकता अर्थात् आत्मा में सम्यग्दर्शन के अभाव का प्रसंग आता है, क्योंकि आत्मा से सर्वथा भिन्न प्रधान का सम्यग्दर्शन गुण आत्मा में सम्यग्दर्शन गुण की व्यवस्थापना नहीं कर सकता॥ 13 // . प्रधान का परिणाम श्रद्धान प्रकृति (प्रधान) से सर्वथा भिन्न दूसरे पुरुष में सम्यक्त्व गुण को उत्पन्न करता है, ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि अग्नि और उष्णत्व के समान लक्ष्य वचन और लक्षण वचनों के वाच्यार्थों का भिन्न अधिकरणत्व मानने में विरोध आता है। अर्थात्-लक्ष्य और लक्षण का एक ही अधिकरण होता है, भिन्न-भिन्न नहीं, जैसे लक्ष्य वचन अग्नि और लक्षण वचन उष्णता का एक ही अधिकरण है। लक्ष्य और लक्षण में शब्दाधिकरण भिन्न-भिन्न होते हुए भी अर्थाधिकरण एक ही है। कोई (कपिल मतानुसारी)कहता है कि प्रधान की समीचीनता से ही चैतन्य (आत्मा)समीचीन (सम्यग्दृष्टि) कहलाता है, क्योंकि बुद्धि के द्वारा समीचीन रूप से निश्चित अर्थ की ही आत्मा के द्वारा संचेतना (समीचीन अनुभव) होती है॥१४॥ आचार्य कहते हैं-यदि प्रधान के सम्यक्त्व से आत्मा सम्यग्दृष्टि बनती है तो बुद्धि की पर्याय अहंकार की समीचीनता स बुद्धि को भी समीचीनता प्राप्त होगी, क्योंकि अहंकार