________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 20 प्रशमादिभिरनुमीयते तथा वीतरागेष्वपि तत्तैः किं नानुमीयते ? इति चेन्न, तस्य स्वस्मिन्नात्मविशुद्धिमात्रत्वात् सकलमोहाभावे समारोपानवतारात् स्वसंवेदनादेव निश्चयोपपत्तेरनुमेयत्वाभावः / परत्र तु प्रशमादीनां तल्लिङ्गानां सतामपि निश्चयोपायानां कायादिव्यवहारविशेषाणामपि तदुपायानामभावात्। कथमिदानीमप्रमत्तादिषु सूक्ष्मसापरायांतेषु सद्दर्शनं प्रशमांदेरनुमातुं शक्यं? तन्निर्णयोपायानां कायादिव्यवहारविशेषाणामभावादेव। न हि तेषां कश्चिद्व्यापारोस्ति वीतरागवत्, व्यापारे वा तेषामप्रमत्तत्वादिविरोधादिति कश्चित्। सोप्यभिहितानभिज्ञः, अभाव की गमक (ज्ञापक) क्यों नहीं होंगी ? और संशयित स्वभाव तो संशय का ही हेतु होता है, ऐसा युक्तियों से कह सकते हैं। अर्थात् संशय स्वभाव संशय का ही कारण है-ऐसा कहना ठीक है। प्रश्न : जैसे सराग सम्यग्दृष्टियों में तत्त्वार्थश्रद्धान प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भाव के द्वारा जाना जाता है, वैसे वीतराग सम्यग्दृष्टियों में तत्त्वार्थश्रद्धान प्रशमादि भावों के द्वारा अनुमेय (गम्य) क्यों नहीं होता? उत्तर : ऐसी शंका करना उचित नहीं है, क्योंकि वीतराग सम्यग्दृष्टि का सम्यग्दर्शन तो केवल आत्मविशुद्धि रूप ही है। सकल मोह का अभाव हो जाने से वीतराग सम्यग्दर्शन में समारोप (संशय विपर्यय और अनध्यवसाय) का अवतरण (उत्पत्ति) भी नहीं हो सकता (मोह के कारण ही संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय होते हैं)। वीतरागी पुरुष को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से वीतराग सम्यग्दर्शन (आत्मविशुद्धि) का निश्चय ज्ञान हो जाने से अनुमेयत्व (दूसरे कारणों से जानने पने) का अभाव है। दूसरे, वीतराग सम्यग्दृष्टियों में सम्यग्दर्शन के ज्ञापक प्रशम आदि कारणों के होने पर भी तथा शरीर, वचन आदि की विशेष चेष्टाएँ रहने पर उन चेष्टाओं में आत्मविशुद्ध रूप वीतराग सम्यग्दर्शन के निर्णय कराने के उपायों का (शक्ति का) अभाव विशेषः तत्त्वार्थ राजवार्त्तिक में सात प्रकृतियों के अभाव में होने वाले सम्यक्त्व को तथा सर्वार्थसिद्धि में आत्मविशुद्धि मात्र को वीतराग सम्यग्दर्शन कहा है। श्लोकवार्तिक के पठन से दोनों एक ही प्रतीत होते हैं। क्योंकि सकल मोह (दर्शन मोह)का अभाव कहने से क्षायिक सम्यक्त्व और उससे होने वाली निर्मल आत्मविशुद्धि ये दोनों एक ही हैं। सकलमोह से यहाँ सम्पूर्ण मोह के अभावरूप दसवें गुणस्थान आदि की वीतराग अवस्था का ग्रहण नहीं होता क्योंकि इस ग्रन्थ में वीतराग सम्यग्दृष्टि के कायचेष्टा और वचनव्यवहार स्वीकार किया है। अतः सकल दर्शनमोह के अभाव में जो अचल आत्मविशुद्धि उत्पन्न हुई है वह अनुमानगम्य नहीं है अपितु स्वसंवेदनगम्य है। वा केवलीगम्य है। वे ही क्षायिक या उपशम आदि के भेद को जानते हैं। कोई कहता है कि इस समय अप्रमत्तादि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्म साम्पराय पर्यन्त गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन प्रशमादि के द्वारा कैसे गम्य हो सकता है ? क्योंकि उन गुणस्थानों में प्रशमादिक के निर्णय करने के उपाय कायादि व्यवहार विशेषों का अभाव ह। उन गुणस्थानों में वीतराग के समान चलना, बोलना आदि