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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 19 तत्सद्भावनिर्णयहेतुत्वमिति चेन्न, सुपरीक्षितानामव्यभिचारात्। सुपरीक्षितं हि कार्यं कारणं गमयति नान्यथा। यदि पुनरतींद्रियत्वात् परप्रशमादीनां तद्भावे कायादिव्यवहारविशेषसद्भावोऽशक्यो निश्चेतुमिति मतिः, तदा तदभावे तद्भाव इति कथं निश्चीयते ? तत एव संशयोस्त्विति चेन्न, तस्य क्कचित्कदाचिनिर्णयमंतरेणानुपपत्तेः स्थाणुपुरुषसंशयवत् / स्वसंताने निर्णयोस्तीति चेत्, तर्हि यादृशाः प्रशमादिषु सत्सु कायादिव्यवहारविशेषाः स्वस्मिनिर्णीतास्तादृशाः परत्रापि तेषु सत्स्वेवेति निर्णीयतां / यादृशास्तु तेष्वसत्सु प्रतीतास्तादृशाः तदभावस्य गमकाः कथं न स्युः संशयितस्वभावास्तु तत्संशयहेतव इति युक्तं वक्तुं / नन्वेवं यथा सरागेषु तत्त्वार्थश्रद्धानं उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि हम पूर्व में कह चुके हैं कि काय, वचन आदि के व्यवहार विशेष से सम्यग्दर्शन में प्रशमादि गुणों के सद्भाव का निर्णय है। शंका : कायचेष्टा आदि का प्रशम आदि के साथ अविनाभाव न होने से व्यभिचारी हेतु है। अर्थात्- काय और वचन की शांत चेष्टा मिथ्यादृष्टि के भी पाई जाती है। अत: प्रशम आदि हेतु सम्यग्दर्शन के विपक्ष मिथ्यादृष्टि में भी जाने से व्यभिचारी (अनैकान्तिक) है। अत: प्रशमादि सम्यग्दर्शन के सद्भाव के निर्णायक हेतु नहीं हैं। . समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि सुपरीक्षित (भले प्रकार निर्णीत) प्रशम आदि हेतु व्यभिचारी (अनैकान्तिक) नहीं हैं, तथा सुपरीक्षित हेतु ही कार्य का गमक (ज्ञापक) होता है, जो सुपरीक्षित नहीं है, वह हेतु कार्य का गमक नहीं होता। ___यदि तुम कहो कि परम प्रशमादि गुणों के अतीन्द्रियत्व होने से (इन्द्रियों के द्वारा गम्य न होने से) प्रशम आदि के सद्भाव में कायादि व्यवहार विशेष के सद्भाव का निश्चय करना शक्य नहीं है। अर्थात्प्रशम आदि गुण वाले की विशेष कायादि चेष्टा है-ऐसा जानना शक्य नहीं है, तो हम पूछते हैं कि प्रशम आदि गुणों के नहीं रहने पर भी कायादि की प्रशान्त आदि रूप विशेष चेष्टा होती है, यह कैसे जाना जा सकता है ? - जिस प्रकार वचन आदि के द्वारा दूसरों के प्रशम आदि का निर्णय नहीं कर सकते, अतः वह संशययुक्त है, उसी प्रकार प्रशम आदि के न होने पर विशेष व्यवहार होता है-यह अनिर्णीत होने से संशययुक्त है। ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि जैसे किसी स्थान और किसी काल में पुरुष और स्थाणु का निर्णय हुए बिना स्थाणु (ढूंठ) में 'पुरुष है या स्थाणु' ऐसा संशय नहीं हो सकता उसी प्रकार किसी स्थान पर और किसी काल में प्रशम आदि धर्मों का निश्चय किये बिना संशय नहीं हो सकता। यदि संतान रूप अपनी आत्मा में शरीर आदि की चेष्टा से प्रशम आदि का निर्णय कर लेते हो तो जैसा प्रशमादिक के कायादिक का व्यवहार विशेष अपनी आत्मा में निर्णीत है (निश्चित है) वैसा दूसरों की आत्मा में भी उन प्रशमादिक के होने पर विशिष्ट कायादि चेष्टा का निर्णय करना चाहिए तथा जैसी काय, वचन व्यवहार आदि की विशेषतायें अपनी आत्मा में प्रशम आदि के न होने पर प्रमाणों के द्वारा जान ली जाती है, उसी प्रकार यदि विशेषतायें दूसरे को आत्मा में भी होंगी तो उस पुरुष के प्रशम आदि गुणों के
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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