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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 18 साक्षादज्ञाननिवृत्तिर्ज्ञानस्य फलं, परंपरया प्रशमादयो हानादिबुद्धिवदिति चेत्, तर्हि हानादिबुद्धिवदेव ज्ञानादुत्तरकालं प्रशमादयोऽनुभूयेरन्, न चैवं ज्ञानसमकालं प्रशमाद्यनुभवनात्। पूर्वज्ञानफलत्वात् प्रशमादे: साम्प्रतिकज्ञानसमकालतयानुभवनमिति चेत्, तर्हि पूर्वज्ञानसमकालवर्तिनोपि प्रशमादेस्तत्पूर्वज्ञानफलत्वेन भवितव्यमित्यनादित्वप्रसक्तिरंवितथा ज्ञानस्य। सम्यग्दर्शनसमसमयमनुभूयमानत्वात् प्रशमादेस्तत्फलत्वमपि मा भत इति चेन्न. तस्य तदभिन्नफलत्वोपगमात्तत्समसमयवत्तित्वाविरोधात। ततो दर्शनकार्यत्वादर्शनस्य ज्ञापका: प्रशमादयः सहचरकार्यत्वात्तु ज्ञानस्येत्यनवयं। परत्र प्रशमादयः संदिग्धासिद्धत्वान्न सद्दर्शनस्य गमका इति चेन्न, कायवाग्व्यवहारविशेषेभ्यस्तेषां तत्र सद्भावनिर्णयस्योक्तत्वात् / तेषां तद्व्यभिचारान्न प्रश्न : प्रशमादिक के ज्ञान का कार्यपना होने से उनमें सम्यग्दर्शन का प्रकाशकपना नहीं है ? उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि ज्ञान का फल तो अज्ञान की निवृत्ति है। प्रश्न : ज्ञान का साक्षात् फल है अज्ञान की निवृत्ति और परम्परा फल है-प्रशम, संवेगं आदि। जैसे ज्ञान का परम्परा फल है हेय पदार्थ में त्यागबुद्धि, उपादेय की ग्रहण बुद्धि और उपेक्षणीय पदार्थों में उपेक्षा बुद्धि। उत्तर : यदि हान आदि के समान प्रशम आदि भावों को ज्ञान का फल स्वीकार किया जायेगा, तो ज्ञान के उत्तर काल में हानादि के समान प्रशमादि का अनुभव होना चाहिए, परन्तु ऐसा होता नहीं है, अपितु ज्ञान के सम काल में ही प्रशमादि गुणों का अनुभव होता है। यदि कहो कि पूर्व (भूतकाल के) ज्ञान का फल प्रशमादि वर्तमानकालीन ज्ञान के साथ अनुभव में आ रहा है (वर्तमानकालीन प्रशमादि वर्तमान काल के साथ अनुभव में नहीं आ रहे हैं), तो पूर्व ज्ञान के सम काल में होने वाले प्रशम, संवेग आदि का उससे भी पहले काल के ज्ञान का फलपना होना चाहिए। इस प्रकार मानने पर सम्यग्ज्ञान के अनादिपने का प्रसंग आता है (परन्तु सम्यग्ज्ञान अनादि नहीं है)। प्रश्न : कोई कहता है-सम्यग्दर्शन के सम काल में अनुभूयमानपना होने से प्रशम आदि के सम्यग्दर्शन का फलत्व नहीं होता (क्योंकि ऐसा मानने पर सम्यग्दर्शन के अनादित्व का प्रसंग आता है)। उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि उन प्रशम आदि को सम्यग्दर्शन का अभिन्न फल स्वीकार किया गया है। अतः प्रशम आदि का सम्यग्दर्शन के काल में रहने में कोई विरोध नहीं है। अर्थात् अभिन्नफल कारण के समान समय में रह सकता है। अत: यह निर्दोष सिद्ध हुआ कि सम्यग्दर्शन का कार्य होने से प्रशम, संवेग आदि गुण सराग सम्यग्दर्शन के ज्ञापक हैं तथा सम्यग्ज्ञानरूप साध्य के साथ रहने वाले सम्यग्दर्शन गुण का कार्य होने से प्रशम आदि सम्यग्ज्ञान के भी ज्ञापक हैं। प्रश्न : दूसरे प्राणियों में संदिग्ध (अनिर्णीत) होने से प्रशम आदि सम्यग्दर्शन के ज्ञापक हेतु नहीं
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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