________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 347 विच्छेदाभावात् / सत्ताशून्यस्य कस्यचिद्देशस्य वानुपपत्तेः, सत्प्रत्ययस्य सर्वत्र सर्वदा सद्भावात् / सत्प्रत्ययस्यैकरूपत्वेपि सत्तानेकत्वे च न किंचिदेकं स्यादिति कश्चित् , सोऽसमीक्षिताभ्यधायी। सत्तायास्तद्बाह्यार्थेभ्यः सर्वथा भिन्नायाः प्रतीत्यभावात् तेभ्यः कथंचिद्भिन्नायास्तु प्रतीतौ तद्वत्सामान्यविशेषवत्त्वसिद्धे नोक्तोपालंभः॥ सर्वमसदेवेति वदंतं प्रत्याह;सन्मात्रापह्नवे संवित्सत्त्वाभावान्न साधनम्। स्वेष्टस्य दूषणं वास्ति नानिष्टस्य कथंचन // 3 // संवेदनाधीनं हीष्टस्य साधनमनिष्टस्य च दूषणं ज्ञानात्मकं न च सर्वशून्यतावादिनः संवेदनमस्ति, विप्रतिषेधात् / ततो न तस्य च युक्तं / नापि परार्थं वचनात्मकं तत एवेति न सन्मात्रापह्नवोपायात् संविन्मानं ग्राह्यग्राहकभावादिशून्यत्वाच्छून्यमिति चेत् ; का विच्छेद करने के लिए संख्यादि' के पूर्व सत् की प्ररूपणा की गई है अर्थात् सत्ता नित्य, व्यापक और एक है। जब उसमें सामान्य और विशेष विकल्प ही नहीं हैं तो फिर सामान्य और विशेष रूप से नास्तित्व के निवारण के लिए 'सत्' का निर्देश क्यों किया जाता है ? सत्ता एक नहीं है-ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि सर्वत्र सदा उस सत्ता के व्यवच्छेद का अभाव है अर्थात् सर्वकाल और सर्वदेश में आकाश के समान सत्ता व्याप्त होकर रहती है, कोई भी देश सत्ता से शून्य होकर स्थित नहीं है, सम्पूर्ण पदार्थों में, सर्व स्थलों पर सदा ही 'सत्' ऐसे ज्ञानों का सद्भाव है। सत्प्रत्यय के एकत्व रूप होते हुए भी यदि सत्ता को अनेक रूप माना जायेगा तो संसार में कोई एक रूप सिद्ध नहीं हो सकेगा। ऐसा कोई (वैशेषिक) कहता है। समाधान : जैनाचार्य कहते हैं कि वैशेषिक का यह कथन बिना विचारा है, क्योंकि सत्तावाले घटपट आदि बाह्य पदार्थों से सर्वथा भिन्न सत्ता की प्रतीति का अभाव है। ____उन सत्तावान पदार्थों से कथंचित् भिन्न (और कथंचित् अभिन्न) सत्ता की प्रतीति होने पर तो उन्हीं अर्थों के समान सत्ता के भी सामान्य विशेषत्व सिद्ध होता है अतः स्याद्वाद सिद्धान्त में तुम्हारे द्वारा कथित उलाहना लागू नहीं होता। “सर्व पदार्थ असत् ही हैं"-इस प्रकार कहने वाले शून्यवादी के प्रति आचार्य कहते हैं: पदार्थों की सत्ता मात्र का सर्वथा लोप कर देने पर (सर्वथा तत्त्वों का अभाव मानने पर) संवेदन के सत्त्व का भी अभाव हो जाता है, तथा संवेदन के अस्तित्व का अभाव मानने पर इष्ट तत्त्व का साधन और अनिष्ट तत्त्व का दूषण भी किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता // 3 // - क्योंकि स्वकीय इष्ट की सिद्धि करना और अनिष्ट तत्त्वों में दूषण देना संवेदना के आधीन है परन्तु सर्व शून्यतावादियों के ज्ञानात्मक संवेदन नहीं है, क्योंकि उनके सिद्धान्त में ज्ञानात्मक संवेदन का निषेध किया गया है इसलिए शून्यवादियों को सम्पूर्ण सत्पदार्थों का अपह्नव (लोप) करना युक्त नहीं है तथा दूसरों