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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 346 स्वार्थोऽधिगमो ज्ञानात्मकैः, परार्थः शब्दात्मकैः कर्तव्य इति घटनात्॥ ननु पूर्वसूत्र एवाधिगमस्य हेतोः प्रतिपादितत्वात् किं चिकीर्षुरिदं सूत्रमब्रवीत् इति चेत् ;सदादिभिः प्रपंचेन तत्त्वार्थाधिगमं मुनिः। संदिदर्शयिषुः प्राह सूत्रं शिष्यानुरोधतः // 1 // ये हि शिष्याः संक्षेपरुचयस्तान् प्रति “प्रमाणनयैरधिगमः" इति सूत्रमाह, ये च मध्यमरुचयस्तान् प्रति निर्देशादिसूत्रं, ये पुनर्विस्तररुचयस्तान् प्रति सदादिभिरष्टाभिस्तत्त्वार्थाधिगमं दर्शयितुमिदं सूत्रं, शिष्यानुरोधेनाचार्यवचनप्रवृत्तेः॥ नास्तित्वैकांतविच्छित्त्यै तावत् प्राक् च प्ररूपणम् / सामान्यतो विशेषात्तु जीवाद्यस्तित्वभिद्विदे॥२॥ नन्वेकत्वादस्तित्वस्य न सामान्यविशेषसंभवो येन सामान्यतो नास्तित्वैकांतस्य विशेषतो जीवादिनास्तित्वस्य व्यवच्छेदात्तत्प्ररूपणं प्रागेव संख्यादिभिः क्रियते / न ह्येका न सत्ता सर्वत्र, सर्वदा तस्या ज्ञानात्मक सत् संख्यादि के द्वारा स्वार्थ (अपने आपका) अधिगम होता है। (क्योंकि प्रतिपादक को स्वयं का अन्वेषण करना भी आवश्यक है)। शब्दात्मक सत् संख्या आदि के द्वारा पदार्थ का अधिगम होता है (क्योंकि प्रतिपाद्य श्रोता अपनी प्रतिपत्ति को शब्दों के द्वारा ही जानता है।) हेतुओं के द्वारा तत्त्वार्थ के अधिगम का प्रतिपादन करना पूर्व सूत्र में कह दिया गया है तो पुन: इस सूत्र का क्या करने की इच्छा से प्रतिपादन किया है ? ऐसी शंका होने पर आचार्य कहते हैं : अति विस्तार के साथ सत्संख्या आदि के द्वारा तत्त्वार्थों को दिखलाने के इच्छुक उमास्वामी आचार्य ने शिष्यों के अनुरोध से सूत्र कहा है॥१॥ क्योंकि जो शिष्य संक्षेप रुचि वाले हैं उनके प्रति "प्रमाणनयैरधिगमः" इस सूत्र का कथन किया है और जो शिष्य न अधिक संक्षेप से समझता है और न अति विस्तार से समझता है, ऐसे मध्यम रुचि वाले शिष्य को समझाने के लिए “निर्देश स्वामित्व साधनाधिकरण स्थितिविधानतः" इस सूत्र का प्रतिपादन किया है परन्तु जो शिष्य अतीव विस्तार से समझने की उत्कण्ठा रखते हैं, उन शिष्यों के प्रति ‘सत्संख्या' आदि आठ अनुयोगों के द्वारा तत्त्वार्थ के अधिगम को दिखाने के लिए इस सूत्र का निर्देश किया है क्योंकि शिष्यों के अनुरोध से आचार्य के वचनों की प्रवृत्ति होती है। ___ इन अनुयोगों में सामान्य रूप से नास्तित्व के एकान्त का निराकरण करने के लिए और विशेष रूप से जीवादिक के अस्तित्व को नहीं मानने वाले चार्वाक का निराकरण करने के लिए सर्वप्रथम सूत्र में “सत्" की प्ररूपणा की ह॥२॥ ___शंका : 'सत्' एकत्व (एक) है; उसके सामान्य और विशेष दो भेद कैसे संभव हो सकते हैं? जिससे सामान्यतः सम्पूर्ण पदार्थों के नास्तित्व के एकान्त का और विशेष रूप से जीवादिक के नास्तित्व
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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