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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 348 ग्राह्यग्राहकभावादिशून्यं संवित्तिमात्रकम् / न स्वत: सिद्धमारेकाभावापत्तेरशेषतः // 4 // परतो ग्रहणे तस्य ग्राह्यग्राहकतास्थितिः / परोपगमतः सा चेत्स्वतः सापि न सिध्यति // 5 // कुतश्चिद्ग्राहकात्सिद्धः पराभ्युपगमो यदि / ग्राह्यग्राहकभावः स्यात्तत्त्वतो नान्यथा स्थितिः॥६॥ ग्राह्यग्राहकभावोतः सिद्धस्स्वेष्टस्य साधनात् / सर्वथैवान्यथा तस्यानुपपत्तिर्विनिश्चयात् // 7 // न हि ग्राह्यग्राहकभावादिशून्यस्य संवेदनस्य स्वयमिष्टस्य साधनं स्वाभ्युपगमतः पराभ्युपगमतो वा स्वतः परतो वा परमार्थतः ग्राह्यग्राहकभावाभावे घटते, अतिप्रसंगात् / संवृत्या घटत एवेति चेत्, तर्हि संवेदनमात्र परमार्थं सत् संवृत्तिसिद्धं / ग्राहकवेद्यत्वाद्भेदव्यवहारवत् स्वरूपस्य स्वतो गतिरितिचेत् , कुतस्तत्र के लिए इष्ट का साधन और अनिष्ट का दूषण भी वचनात्मक है, वह भी शून्यवादियों के घटित नहीं हो सकता। क्योंकि सत् मात्र का लोप करने पर सत्स्वरूप वचन कैसे घटित हो सकते हैं ? .. "ग्राह्य-ग्राहक भाव, बाध्य-बाधक भाव, कार्य-कारण भाव, वाच्य-वाचक भावादि से शून्य होने के कारण संवेदन मात्र को शून्य तत्त्व कहते हैं।" ऐसा बौद्ध के कहने पर आचार्य कहते हैं: ग्राह्य-ग्राहकादि भावों से शून्य (रहित) संवित्तिमात्र (संवेदन) स्वत: सिद्ध नहीं है। यदि शून्य संवेदन की स्वतः सिद्धि होती है तो पूर्ण रूप से संशय होने के अभाव का प्रसंग आयेगा // 4 // यदि शून्य संवेदन का दूसरे के द्वारा ग्रहण होता है तो ग्राह्य ग्राहक भाव की सिद्धि हो जाती है अर्थात् संवेदन ग्राह्य हो जाता है और पर पदार्थ ग्राहक हो जाते हैं। यदि ग्राह्य-ग्राहक भाव स्वतः न मानकर दूसरे (स्याद्वादियों) के कथन से उसमें ग्राह्य-ग्राहक भाव स्वीकार किया जायेगा तो उसकी सिद्धि भी स्वत: नहीं हो सकती // 5 // यदि किसी अन्य ग्राहक ज्ञान से पराभ्युपगम (दूसरों की स्वीकृति को) सिद्ध हुआ मानोगे तो वास्तविक रूप से ग्राह्य-ग्राहक भाव सिद्ध हो जाता है। अन्यथा लोकप्रसिद्ध ग्राह्य-ग्राहक भाव की स्थिति नहीं हो सकती। अथवा अन्य प्रकार से इष्ट तत्त्व की सिद्धि नहीं हो सकती अतः स्वकीय इष्ट पदार्थ के साधन से ही ग्राह्य-ग्राहक भाव सिद्ध हो जाता है। अन्यथा (ग्राह्य-ग्राहक भाव के अभाव में) सभी प्रकारों से उस इष्ट संवेदन मात्र तत्त्व की सिद्धि नहीं हो सकती जो विशेष रूप से निश्चित है॥६-७॥ ग्राह्य-ग्राहक आदि भाव से शून्य स्वयं बौद्ध के द्वारा इष्ट संवेदन का साधन (सिद्ध) करना ग्राह्यग्राहक आदि भाव के अभाव में स्वतः स्वीकार करने से अथवा दूसरे मीमांसक आदि के द्वारा स्वीकृत होने पर भी घटित नहीं हो सकता है। अन्यथा अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् प्रमाण और प्रमेय का ग्राह्य, ग्राहक भाव का अभाव मानने पर स्वेच्छानुसार अभीष्ट तत्त्व की सिद्धि हो जायेगी, सभी वादियों के मनोरथ सिद्ध हो जायेंगे। यदि कल्पित व्यवहार से ग्राह्य-ग्राहक भाव मानकर इष्ट तत्त्व का साधन घटित करते हैं तो वास्तविक रूप से सद्भूत संवेदन को भी कल्पित सिद्ध समझना पड़ेगा क्योंकि जैसे द्वैत रूप भेदों को जानने
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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