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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 342 ___ सर्वमेकं सदविशेषादिति विरुद्ध साधनं, नानार्थाभावे सदविशेषस्यानुपपत्तेस्तस्याभेदनिष्ठत्वात् / ननु च सदेकत्वं सदविशेषो न तत्साधर्म्यं यतो विरुद्धं साधयेदिति चेन्न, तस्य साध्यसमत्वात् / को हि सदेकमिच्छत् सर्वमेकं नेच्छेत् / यदि पुन: सत्ताविशेषाभावादिति हेतुस्तदाप्यसिद्धं, सद्घटः सत्पट इति विशेषस्य प्रतीतेः। मिथ्येयं प्रतीतिर्घटादिविशेषस्य स्वप्नादिवद्व्यभिचारादिति चेन्न, सत्ताद्वैते सम्यङ्मिथ्याप्रतीतिविशेषस्यासंभवात् संभवे वा तद्वदन्यत्र तत्संभवः कथं नानुमन्यते ? मिथ्याप्रतीतेरविद्यात्वादविद्यायाश्च नीरूपत्वान्न सा सन्मात्रप्रतीतेर्द्वितीया यतो भेदः सिद्ध्येत् इति चेन्न, व्याघातात् / प्रतीतिर्हि सर्वा स्वयं प्रतिभासमानरूपा सा विश्व के सम्पूर्ण पदार्थ सामान्य रूप से सत् होने के कारण एक हैं, इस अनुमान में दिया गया सविशेष यह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि अनेक अर्थों के अभाव में सत्ता रूप से अविशेष की उत्पत्ति. (सिद्धि) नहीं हो सकती है वह सत् का सामान्यपन विशेष स्वरूप से भेदों में ही स्थित है।' शंका : सत्तापन से अविशेषता का अर्थ तो सत्त्व रूप से एकत्व है उस सत्ता रूप से साधर्म्य उसका अर्थ नहीं है जिससे हमारा हेतु साध्य के विरुद्ध अनेकत्व को सिद्ध कर सकता हो। उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि वह हेतु साध्य सम है अर्थात् जो एकपना साध्य है, वही सत्ता अविशेष का अर्थ सत्ता रूप से एकपना है अत: हेतु और साध्य एक समान हैं। जब साध्य असिद्ध है तो हेतु भी असिद्ध है। कौन बुद्धिमान है जो सत् रूप से हेतु के तो एकत्व स्वीकार करता हो और सबका एकपना इष्ट नहीं करता हो अर्थात् जब हेतु और साध्य दोनों एक हैं तो हेतु को जानना ही साध्य को जानना हुआ अतः अनुमान करने की क्या आवश्यकता है ? यदि फिर सबको एक सिद्ध करने के लिए सत्ता विशेष का अभाव है-यह हेतु भी असिद्ध है क्योंकि घट सत् है पट सत् है, इस प्रकार विशेष सत्ता वाले पदार्थ प्रतीति सिद्ध हैं। अद्वैतवादी कहता है कि स्वप्न आदि के साथ व्यभिचार होने से घटादिक विशेष की प्रतीति मिथ्या है अर्थात् जैसे स्वप्नादि अवस्था में घटादिक का प्रतिभास मिथ्या है, उसी प्रकार जागृत अवस्था में भी होने वाला घटादिक का प्रतिभास मिथ्या है। जैनाचार्य कहते हैं कि अद्वैतवादी का यह कथन उचित नहीं हैक्योंकि सत्ताद्वैत में यह प्रतीति समीचीन है और यह मिथ्या प्रतीति है ऐसे भेद का होना असंभव है अर्थात् जब सत्ता में द्वैतपना ही नहीं है तो यह प्रतीति समीचीन है, यह मिथ्या है, इस प्रकार का भेद (द्वैत) कैसे हो सकता है? यदि मिथ्या और समीचीन भेद संभव हैं तो फिर उसके समान अन्य स्थानों में भी भेद स्वीकार करके सामान्य सत्ता और विशेषसत्ता ये दो भेद क्यों नहीं मानते हैं ? अद्वैत का कदाग्रह क्यों करते हैं ? "अविद्या के कारण मिथ्या प्रतीति होती है और अविद्या के नीरूपत्व है (अर्थात्-अविद्या स्वरूप रहित तुच्छ पदार्थ है), अतः सत्तामात्र को विषय करने वाली प्रतीति से अतिरिक्त अविद्या कोई दूसरा वस्तुभूत पदार्थ नहीं है।" 1. निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत्।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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