________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 341 प्रथमक्षणे द्वितीयक्षणापेक्षं क्षणद्वयस्थायित्वमन्यदेव, द्वितीयक्षणे प्रथमक्षणापेक्षात्ततोस्त्येव प्रतिक्षणं स्वभावभेदोऽसत्तः क्षणमात्रस्थितिः सिद्ध्येत्सर्वार्थानामिति वदंतं प्रत्याह;क्षणमात्रस्थितिः सिद्धैवर्जुसूत्रनयादिह / द्रव्यार्थिकनयादेव सिद्धा कालांतरस्थितिः // 24 // न हि वयमृजुसूत्रनयात्प्रतिक्षणस्वभावभेदात् क्षणमात्रस्थितिं प्रतीक्षयामः ततः कालांतरस्थितिविरोधात्। केवलं यथार्जुसूत्रात्क्षणस्थितिरेव भावः स्वहेतोरुत्पन्नस्तथा द्रव्यार्थिकनयात्कालांतरस्थितिरेवेति प्रतिचक्ष्महे सर्वथाप्यबाधितप्रत्ययात्तत्सिद्धिरिति स्थितिरधिगम्या॥ विश्वमेकं सदाकाराविशेषादित्यसंभवि। विधानं वास्तवं वस्तुन्येवं केचित्प्रलापिनः // 25 // सदाकाराविशेषस्य नानार्थानामपह्नवे / संभवाभावतः सिद्धे विधानस्यैव तत्त्वतः // 26 // शंका : प्रथम क्षण में द्वितीय क्षण की अपेक्षा रखने वाले दो क्षणस्थायी भाव पृथक् हैं द्वितीय क्षण में प्रथम क्षण की अपेक्षा रखने वाले भाव पथक हैं अतः प्रत्येक क्षण में स्वभाव भेद रहता है इसलिए सम्पूर्ण पदार्थों की केवल एक समय की स्थिति सिद्ध होती है इस प्रकार शंका करने वाले बौद्ध के प्रति जैन आचार्य कहते हैं : ____ समाधान : यदि ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा कथन किया जाता है तब तो पर्यायों की एक क्षणमात्र स्थिति सिद्ध होती है अर्थात् ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण प्रवर्तन करता रहता है परन्तु द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य कालान्तर में स्थित सिद्ध होते हैं // 24 // __ भावार्थ : ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा प्रत्येक वस्तु अनित्य है, क्षणध्वंसी है और द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य और कालान्तर स्थायी है अत: वस्तु नित्यानित्यात्मक है। हम स्याद्वादी लोग ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा निरंतर स्वभाव भेद होने के कारण सम्पूर्ण पर्यायों की केवल एक क्षण मात्र स्थिति की प्रतीक्षा नहीं करते हैं क्योंकि ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से पदार्थों के कालान्तर स्थिति का विरोध है अर्थात् ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा हम पदार्थ को क्षणध्वंसी मानते हैं। जैसे ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा एक क्षण स्थित रहने वाला पदार्थ स्वकीय कारणों से उत्पन्न होता है-वैसे ही द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा पदार्थ चिरकाल तक स्थित रहने वाला अपने कारणों से उत्पन्न होता है ऐसा जैन सिद्धान्तानुयायी हम कहते हैं। सर्वथा अबाधित प्रमाणों के द्वारा कालान्तर स्थायी ध्रुव पर्याय की सिद्धि होती है। इस प्रकार स्थिति को भी पदार्थों के जानने का उपाय समझना चाहिए। अब विधान का कथन करते हैं.. सत् आकार की अविशेषता से उत्पन्न होने के कारण विश्व एक रूप है इसलिए वस्तु में विधान (भेदगणना) का वास्तविक होना असंभव है। इस प्रकार कोई (ब्रह्माद्वैतवादी) व्यर्थ का प्रलाप कर रहा है क्योंकि, अनेक अर्थों का लोप करके (नानार्थों को स्वीकार न करके) सद् आकारों की अविशेष का (सद्रूप ब्रह्माद्वैत को मानना वा सिद्ध करना) होना संभव नहीं है इसलिए विधान (भेद के प्रकार) की वास्तविक रूप से ही सिद्धि हो जाती है अर्थात् सामान्य रूप से सत्पना विशेष भेदों के होने पर ही संभव हो सकता है अतः विधान सिद्ध हो जाता है॥२५-२६॥