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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 343 कथं नीरूपा स्यात् / ग्राह्यरूपाभावान्नीरूपा मिथ्याप्रतीतिरितिचेत्तर्हि ग्राह्यरूपसहिता सम्यक् प्रतीतिरिति तद्विशेषसिद्धेः / सम्यक्प्रतीतिरपि ग्राह्यरूपरहितेतिचेत् कथमिदानीं सत्येतरप्रतीतिव्यवस्था? यथैव हि सन्मात्रप्रतीतिः स्वरूप एवाव्यभिचारात्सत्या तथा भेदप्रतीतिरपि / यथा वा सा ग्राह्याभावादसत्या तथा सन्मात्रप्रतीतिरपीति न विद्याविद्याविभागं बुद्ध्यामहेन्यत्र कथंचिद्भेदवादात् ततो न सन्मात्रं तत्त्वतः सिद्धं साधनाघटनादिति विधानस्यैव नानार्थाश्रयस्य सिद्धेस्तदधिगम्यमेव निर्देशादिवत्॥ तदेवं मानतः सिद्धैर्निर्देशादिभिरंजसा / युक्तं जीवादिषूक्तेषु निरूपणमसंशयम् // 27 // ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि यह कथन व्याघात दोष से युक्त है अर्थात् यह कथन स्ववचन बाधित है क्योंकि सम्पूर्ण ही प्रतीतियाँ (ज्ञान) अपने स्वरूप से प्रतिभासमान स्वरूप हैं। जो स्वयं प्रतिभासमान स्वरूप है वह स्वभाव से रहित नीरूप कैसे हो सकती है ? यदि अद्वैतवादी कहे कि ज्ञान के द्वारा ग्रहण करने योग्य रूपों के नहीं होने से (ज्ञान के ग्रहण करने का अभाव होने से) प्रतीति मिथ्या और स्वभाव रहित अवस्तु है तो इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने पर तो ज्ञान के द्वारा ग्रहण करने योग्य सत्ता समीचीन प्रतीति सिद्ध होती है। इस प्रकार सम्यक् प्रतीति और असम्यक् प्रतीति के भेद से सत्ता विशेष की सिद्धि हो जाती है। यदि सम्यक् प्रतीति को भी ग्रहण रूप से रहित मानते हैं तबतो इस समय समीचीन प्रतीति और असमीचीन प्रतीति की व्यवस्था कैसे हो सकती है ? जिस प्रकार केवल शुद्ध सत्ता को विषय करने वाली प्रतीति सत्ता विधि स्वरूप में ही व्यभिचार रहित होने के कारण सत्य स्वरूप है उसी प्रकार घट, पंट आदि भेद रूप विशेष सत्ता को विषय करने वाली प्रतीति भी व्यभिचार रहित होने से सत्य स्वरूप है जैसे ग्राह्य विषय न होने से वह भेद प्रतीति असत्य मानी जाती है उसी प्रकार शुद्ध सन्मात्र प्रतीति भी बहिर्भूत ग्राह्य पदार्थ न होने के कारण असत्य हो जाएगी अत: कथञ्चित् भेद वाद से अतिरिक्त विद्या और अविद्या के विभाग को हम कुछ भी नहीं समझते हैं इसलिए केवल सत्स्वरूप अद्वैत तत्त्व वास्तविक स्वरूप से सिद्ध नहीं हो पाता है तथा अद्वैतवादियों के द्वारा कथित साधन (हेतु) भी घटित नहीं होता है। भावार्थ : भेद एकान्त और अभेद एकान्त सिद्ध नहीं होता है-अपितु कथञ्चित् भेदाभेदात्मक सिद्ध होता है। इस प्रकार निर्देश और स्वामित्व के समान विधान भी जानने योग्य है क्योंकि अनेक अर्थों में रहने वाले अधिगमक विधान की सिद्धि हो जाती है और विधान के कथन से ही वस्तु का परिपूर्ण ज्ञान होता इस प्रकार प्रमाण से सिद्ध किये गये निर्देश आदि के द्वारा पूर्वोक्त जीवादि पदार्थों का और रत्नत्रय आदि का संशय रहित निर्दोष अधिगम होने का निरूपण करना युक्त है। अर्थात् सूत्रकार उमास्वामी के द्वारा कथित निर्देश आदि युक्तिसंगत है॥२७॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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