________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 336 एवामूर्तत्वादिति वक्ष्यामः। प्रतीत्यतिक्रमे तु कारणाभावात् सर्वमसमंजसं मानमेयं प्रलापमात्रमुपेक्षणीयं स्यादिति यथा प्रतीतिसिद्धमधिकरणमधिगम्यमानाम्॥ अस्थिरत्वात्पदार्थानां स्थिति:वास्ति तात्त्विकी / क्षणादूर्ध्वमितीच्छंति केचित्तदपि दुर्घटम्॥ 21 // निरन्वयक्षयैकांते संतानाद्यनवस्थितेः / पुण्यपापाद्यनुष्ठानाभावासक्तेर्निरूपणात् // 22 // संवृत्या संतानसमुदायसाधात् प्रेत्यभावानां पुण्यपापमुक्तिमार्गानुष्ठानस्य चाभ्युपगमात् परमार्थतस्तदभावासक्तिर्नानिष्टेति चेत्, किमिदानी संवेदनाद्वैतमस्तु परमार्थं सत् शंका : सर्व द्रव्यों को सर्वत्र व्यापक मानने में क्या दोष है ? उत्तर : सर्व पदार्थ सर्वगत हैं-यह कथन प्रतीति विरुद्ध है। जैसे संसारी जीव और पुद्गल को अमूर्त कहना प्रतीति विरुद्ध है। तथा धर्म अधर्म आकाश को मूर्तिक कहना प्रतीति विरुद्ध है। प्रत्यक्ष ज्ञान की अनुमान ज्ञान से मूर्तत्व की प्रतीति नहीं हो रही है। (इसका विस्तारपूर्वक कथन पाँचवें अध्याय में करेंगे) कारण का अभाव होने से प्रतीति का उल्लंघन करके कथन करना असमंजस है; प्रलाप मात्र है। अत: वस्तु . के व्यवस्थापन का कारण न होने से तथा नीति का उल्लंघन करने वाला होने से उपेक्षणीय है; ग्रहण करने योग्य नहीं है। इसलिए प्रतीति सिद्ध होने से अधिकरण भी पदार्थों के जानने का उपाय है-ऐसा जानना चाहिए। अधिकरण का निरूपण पूर्ण हुआ। अब स्थिति का कथन करते हैं: "सर्व पदार्थ अस्थिर हैं-क्षण क्षयी हैं अतः उनकी स्थिति वास्तविक नहीं है। क्योंकि, वे एक क्षण से अधिक स्थित नहीं रहते हैं। इस प्रकार कोई (बौद्ध) चाहते हैं (स्वीकार करते हैं)। परन्तु, उनका यह कथन दुर्घट है। (कठिनता से भी घटित नहीं होता है) क्योंकि, सर्वथा पदार्थों का निरन्वय नाश मान लेने पर सन्तान समुदाय आदि की व्यवस्था नहीं हो सकती और पुण्य-पाप आदि अनुष्ठान के अभाव का प्रसंग आता है अर्थात् निरन्वय नाश होने वाले पदार्थों में पुण्य-पाप, पूर्व-भव स्मरण आदि का कथन सिद्ध नहीं हो सकता इसलिए स्थिति का निरूपण करना उपयुक्त है॥२१-२२॥ बौद्ध कहते हैं कि काल प्रत्यासत्ति से कल्पित अनेक क्षणिक परिणामों की संतान, देश प्रत्यासत्ति से स्वीकृत अनेक क्षणिक परिणामों का समुदाय, समान धर्मों की अपेक्षा से माना गया साधर्म्य एवं मर कर पुनः जन्म धारण करना रूप प्रेत्यभाव, तथा पुण्य-पाप, मोक्षमार्ग का अनुष्ठान आदि सर्व प्रक्रिया संवृत्ति (कल्पनाओं) से कल्पित है बौद्ध सिद्धान्त में पुण्य-पाप, प्रेत्यभाव आदि को कल्पना से स्वीकार किया है अत: पुण्य, पापादि के अभाव का प्रसंग परमार्थ से अनिष्ट नहीं है अर्थात् पुण्य-पाप आदि वास्तविक नहीं हैं। यह सौगत मत में इष्ट है बौद्ध के इस कथन के उत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि क्या सौगत मत में स्वीकृत संवेदनाद्वैत परमार्थ सत् है ?