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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 337 निरन्वयविनश्वराणामेकक्षणस्थितीनां नानापदार्थानामनुभवात्। तदपि नेति चेत् तर्हि इष्टं संतानादि सर्वं निरंकुशत्वात् तच्च निरन्वयक्षयैकांते संवृत्त्यापि न स्यात् / तथा च निरूपितं “संतान: समुदायश्च साधर्म्य च निरंकुशः / प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्वनिह्नवे // " इति। ननु च बीजांकुरादीनामेकत्वाभावेपि संतान: सिद्धस्तिलादीनां समुदायसाधर्म्यं च तद्वत्सर्वत्र तत्सिद्धौ किमेकत्वेनेति चेन्न, सर्वबीजांकुरादीनामेकसंतानत्वापत्तेः, सकलतिलादीनां वा समुदायसाधर्म्यप्रसक्तेः / प्रत्यासत्तेर्विशेषात्केषांचिदेव संतान: समुदाय: यदि बौद्ध कहे कि अन्वयरहित, विनाशशील और एक क्षणस्थायी अनेक घट, पट, जीवादि पदार्थों का अनुभव हो रहा है, अत: संवेदनाद्वैत भी परमार्थ सत् नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो बाधक प्रमाण से रहित होने के कारण सभी सन्तान, समुदाय आदि पदार्थ अभीष्ट (परमार्थ सत् रूप) हो जायेंगे; निरंकुश सिद्ध हो जाएँगे तथा निरन्वय नाश वा क्षणिक एकान्त की अपेक्षा से दूसरे ही क्षण में द्रव्यत्व का अन्वय रहित नाश हो जाने पर बौद्ध मत में सन्तान समुदाय साधर्म्य और मरकर जन्म लेना (पुनर्भव) आदि सभी पदार्थ संवृत्ति से भी बाधारहित सिद्ध नहीं हो सकते हैं। भावार्थ : जब पदार्थ सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, द्रव्य दृष्टि से भी ध्रुव नहीं रहते हैं, तो पुण्य-पाप, मरकर जन्मना, स्वकीय कर्मों का फल भोगना आदि कोई भी क्रिया संवृत्ति से सिद्ध नहीं होती है तथा ऐसा देवागम स्तोत्र में भी निरूपण है। सो ही समन्तभद्र ने कहा है - एकत्व परिणति स्वभाव का निह्नव करने पर प्रेत्यभाव, सन्तान, समुदाय, साधर्म्य, सर्वभाव निरंकुश होकर सिद्ध नहीं हो सकता। शंका : बीजांकुर न्याय से बीज अंकुर आदि के एकत्व का अभाव होने पर भी संतान की सिद्धि है अर्थात् अंकुर अवस्था में बीज के सर्वथा नष्ट हो जाने पर और वृक्ष में अंकुर का अभाव हो जाने पर वह बीज की संतान कही जाती है तभी तो बीज के अनुरूप फल लगते हैं। तिल आदि का समुदाय भी सिद्ध हो जाता है। उसी प्रकार तिल आदि का सादृश्य होने से साधर्म्य बनना भी शक्य है। इस प्रकार सर्वथा भेद में सन्तान, समुदाय साधर्म्य की सिद्धि हो जाने पर एक अखण्ड अविनाशी द्रव्य के मानने से क्या प्रयोजन समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है-अर्थात् द्रव्य को क्षणध्वंसी मानना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर सर्व बीज अंकुरादिक में एक संतान होने का प्रसंग आयेगा अर्थात् गेहूँ बीज से ही गेहूँ का पौधा बनेगा, यह नियम नहीं रहेगा अपितु किसी भी बीज से गेहूँ की उत्पत्ति हो जायेगी क्योंकि बीज तो बौद्ध मतानुसार सर्वथा नष्ट हो जाता है उस बीज से सर्वथा भिन्न गेहूँ लघु वृक्ष की उत्पत्ति हुई है। अत: गेहूँ बीज उत्पन्न न होकर किसी भी बीज से उत्पन्न हो सकता है। उसमें एक संतानत्व क्यों नहीं होगा? तथा सकल तिल, सरसों, आदि के भी समुदाय और साधर्म्य होने का प्रसंग आयेगा। “यदि बौद्ध कहे कि किसी विशेष प्रत्यासत्ति (सम्बन्ध) से कुछ विवक्षित पूर्वोत्तरभावी संततियाँ सन्तान बन जाती हैं और विशेष सम्बन्ध के कारण किन्हीं नियत पदार्थों का ही समुदाय अथवा विशिष्ट
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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