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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 334 नानवस्थाप्रसंगोत्र व्योम्नः स्वाश्रयतास्थितेः। सर्वलोकाश्रयस्यांतविहीनस्य समंततः // 19 // ___ स्वाश्रयं व्योम, समंततोतविहीनत्वान्यथानुपपत्तेः। समंततोंतविहीनं तत् सकलासर्वगतार्थाभावस्वभावत्वे सत्येकद्रव्यरूपत्वात् / रूपादिपरमाणूनां रसादिपरमाणुभावरूपत्वादविरोध इति चेत् ते तर्हि रूपरसादिपरमाणवः सर्वे सकृत्परस्परं संसृष्टा व्यवहिता वा स्युः ? न तावत्संसृष्टाः कात्न्यनैकदेशेन वा संसर्गस्य स्वयं निराकरणात् / व्यवहितत्वे तु तेषामनंतानामनंतप्रदेशं व्यवधायकं किंचिदुररीकर्तव्यं तदेव व्योम तेषामभावे। इति सिद्धं सकलासर्वगतार्थाभावस्वभावत्वं व्योम्नः / न च तस्यानंता: प्रदेशाः परस्परमेकशो द्रव्य को गुणों का आधार मानने पर अनवस्था दोष का प्रसंग नहीं आता है क्योंकि सम्पूर्ण संसार के पदार्थों को आश्रय देने वाले और अन्त रहित (अनन्त प्रदेशी) आकाश प्रदेश का स्वाश्रयपना असिद्ध नहीं है अर्थात् सारे जगत् के पदार्थों को आश्रय (आधार) देने वाला आकाश स्वयं निराधार रहता है। वह स्वप्रतिष्ठित है // 19 // आकाश स्वाश्रित है, चारों तरफ अन्तरहित होने से; अन्यथा (स्वाश्रय के बिना) अन्तरहितपना सिद्ध नहीं हो सकता। सकल असर्वगत (अव्यापक) पदार्थों का अभाव स्वरूप स्वभाव होने से तथा एक अखण्ड द्रव्य होने से आकाश चारों तरफ से अन्त रहित है। “रूप, रस आदि के परमाणु रस गन्ध आदि के परमाणुओं के स्वभाव रूप हो जाते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है अर्थात् जिस प्रकार आकाश अनन्त है (अन्त रहित है) वैसे परमाणु भी अन्त रहित हैं। परमाणु के भी अविभागी प्रतिच्छेद नहीं है; वह भी स्व आश्रय रहता है; उसके भी आधार आधेय भाव नहीं होना चाहिए।" बौद्ध के इस प्रकार कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि वे रूप, रस, गन्ध स्पर्श वाले सर्व परमाणु परस्पर एक साथ संसर्ग युक्त हैं कि अन्तराल सहित हैं ? प्रथम पक्ष के अनुसार वे परमाणु संसर्ग सहित तो हो नहीं सकते क्योंकि इसका पूर्व में निराकरण किया है। परमाणुओं का परस्पर संसर्ग मानने पर एकदेश से संसर्ग होता है कि सर्वदेश संसर्ग होता है ? यदि एक परमाणु का दूसरे परमाणु के साथ सर्वदेश संसर्ग होता है तब तो सर्व पुद्गल एक परमाणु रूप हो जाएंगे। यदि परमाणु का सम्बन्ध एकदेश माना जायेगा तो परमाणु में भी अंश की कल्पना करनी पड़ेगी। यदि परमाणु का सम्बन्ध व्यवधान सहित मानोगे तो उन अनन्त परमाणुओं का परस्पर व्यवधान कराने वाला कोई अनन्त प्रदेश वाला पदार्थ स्वीकार करना चाहिए। और वह अनन्त प्रदेश वाला आकाश द्रव्य ही है और उस आकाश के अव्यापक अभाव स्वभावत्व सिद्ध ही है। उस आकाश के अनन्त प्रदेश परस्पर व्यवधान युक्त (अन्तराल सहित) नहीं हैं क्योंकि आकाश प्रदेशों के भी परस्पर व्यवधान करने वाले पदार्थ की कल्पना करने पर अनवस्था दोष आता है। अर्थात् आकाश के प्रदेशों का व्यवधान करने वाला कोई पदार्थ नहीं है। आकाश द्रव्य में उसके अनन्त प्रदेशों का कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है अत: व्यवधान रहित है। अन्यथा (एक द्रव्य में तादात्म्य सम्बन्ध के अभाव
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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