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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*३३३ न हि द्रव्यमप्रसिद्ध गुणादयो वा प्रत्यभिज्ञानादिप्रत्ययेनाबाधितेन तन्निरूपणात् / नाप्याधाराधेयता द्रव्यगुणादीनामप्रसिद्धा यतः सर्वथाधिकरणमसदिति पक्षः प्रसिद्धिबाधितो न स्यात् / हेतुश्चासिद्धः पदार्थानामाधाराधेयभावस्य विचार्यमाणस्यायोगादिति / स्थाल्यां दधि पटे रूपमिति तत्प्रत्ययस्य निर्बाधस्य तत्साधनत्वात् कार्यकारणभावविशेषस्य साधकोयं प्रत्यय इति चेत् स एवाधाराधेयभावोस्तु / सांवृतोसाविति चेत् न, कार्यकारणभावस्य तात्त्विकस्य साधितत्वात् / तद्विशेषस्य तात्त्विकत्वसिद्धेः / कथं तर्हि गुणादीनां द्रव्याधारत्वे द्रव्यस्याप्यन्याधारत्वं न स्याद्यतोऽनवस्था निवार्येत / तेषां वा द्रव्यानाधारत्वप्रसक्तिरिति चेत् __ प्रत्यभिज्ञान, अनुमानज्ञान, प्रत्यक्षज्ञान और आगम प्रमाण के द्वारा निर्बाध निरूपण हो जाने से द्रव्य और गुणादि अप्रसिद्ध नहीं है। तथा द्रव्य और गुण आदि की आधार आधेयता भी अप्रसिद्ध नहीं है। इसलिए "अधिकरण सर्वथा असत् है" यह पक्ष (कथन) प्रसिद्ध बाधित नहीं होगा ? अपितु अवश्य होगा। पदार्थों के विचार्यमाण आधार, आधेय भाव का अयोग होने से हेतु असिद्ध है अर्थात् प्रतीतियों से आधार आधेय भाव की सिद्धि हो जाने पर बौद्धों का पक्ष प्रमाण बाधित है-हेतु असिद्ध हेत्वाभास है। जैसे थाली में दही है-वृक्ष में आम्रफल हैं, कपड़े में रूप है, आत्मा में सुख है इत्यादि पदार्थ का निर्दोष ज्ञान आधार-आधेय भाव को सिद्ध करने वाला साधन (कारण) है। बौद्ध कहता है कि “थाली में दही है" इत्यादि ज्ञान तो विशेष कार्य-कारण भाव के साधक हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि यही आधार आधेय हैं अर्थात् स्याद्वाद मत में कार्य-कारण भाव का व्याप्य ही आधार-आधेय भाव बन जाता है इसमें कोई क्षति नहीं है। कार्य-कारण भाव व्यापक है और आधारआधेय भाव व्याप्य है। चक्षु और ज्ञान में अथवा घट और दण्ड में कार्य कारण भाव है, आधार आधेय भाव नहीं है परन्तु आत्मा और ज्ञान में तथा कपड़े और रूप में कार्य-कारण भाव भी है और आधार-आधेय भाव भी। . बौद्ध कहता है कि कार्य-कारण भाव तो कल्पित है, वास्तविक नहीं है। इसके उत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि बौद्ध का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि, कार्य-कारण भाव की वास्तविकता प्रमाणों के द्वारा पहले सिद्ध कर चुके हैं इसलिए सामान्य विशेषात्मक वस्तु का कार्य कारण भाव और आधार आधेय भाव पारमार्थिक है ऐसा सिद्ध हो जाता है। "शंका : यदि गुणों का आधार द्रव्य है तो द्रव्यों का आधार अन्य द्रव्य क्यों नहीं है ? अर्थात् गुणों के आधारभूत द्रव्य के समान द्रव्य का भी आधारभूत अन्य द्रव्य होना चाहिए और द्रव्य का भी अन्य आधार स्वीकार करेंगे तो अनवस्था दोष का निवारण कैसे हो सकेगा ? यदि द्रव्य का अन्य द्रव्य आधार नहीं है तो गुणों के भी द्रव्य के अनाधारत्व (गुण भी निराधार रहने) का प्रसंग आयेगा"। इस प्रकार बौद्धों की शंका का जैनाचार्य निराकरण करते हैं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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