________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 332 नित्यसर्वगतेष्विष्टौ तस्याः संवित्त्यसंभवात् / क्व व्यवस्थापनानंशक्षणिकज्ञानतत्त्ववत् // 16 // न हि क्षणिकानंशसंवेदनं स्वतः प्रतिभासते सर्वस्य भ्रांत्यभावानुषंगात् / तद्वन्नित्यं सर्वगतं ब्रह्मेति न तत्संवेदनमेव मुक्तिः पारमार्थिकी युक्ता, ततः सकलकर्मविप्रमोक्षो मुक्तिरुररीकर्तव्या / सा बंधपूर्विकेति तात्त्विको बंधोभ्युपगंतव्यः तयोः ससाधनत्वात् अन्यथा कादाचित्कत्वायोगात्साधनं तात्त्विकमभ्युपगंतव्यं न पुनरविद्याविलासमात्रमिति सूक्तं साधनमधिगम्यम्॥ आधाराधेयभावस्य पदार्थानामयोगतः / तत्त्वतो विद्यते नाधिकरणं किंचिदित्यसत् // 17 // स्फुटं द्रव्यगुणादीनामाधाराधेयतागतेः। प्रसिद्धिबाधितत्वेन तदभावस्य सर्वथा // 18 // . यदि ज्ञानस्वरूप मुक्ति की संवित्ति को नित्य सर्वव्यापक आत्मस्वरूप इष्ट किया जायेगा (माना जायेगा) तो ज्ञानस्वरूप मुक्ति की संवित्ति होना (निश्चय होना) भी असंभव है अत: बौद्धों के निरंश और क्षणक्षयी ज्ञान तत्त्व के समान, ब्रह्मवादियों के नित्य, सर्व व्यापक, संवित्ति (ज्ञान) स्वरूप मोक्ष की सिद्धि भी कैसे हो सकती है ? अर्थात् मुक्ति को सकारण मानने पर ही तत्त्व श्रवण, मनन आदि की सिद्धि हो सकती है अन्यथा नहीं // 16 // ___ क्षणिक और अंश रहित स्वसंवेदन स्वयं प्रतिभासित नहीं होता है। यदि सर्व जीवों को स्वसंवेदन का स्वयं प्रतिभास होता है तो भ्रान्ति के अभाव का प्रसंग आता है अर्थात् सर्व जीवों को सदृश ज्ञान प्राप्त होगा किसी को भी किसी तत्त्व में भ्रान्ति नहीं रहेगी। “उसी स्वसंवेदन के समान नित्य, सर्वगत, परम ब्रह्म का भी स्वयं प्रतिभास नहीं होता है। अतः स्वसंवेदन ही पारमार्थिकी मुक्ति है-ऐसा भी कहना युक्तिसंगत नहीं है। (प्रमाणों से बाधित है) इसलिए सर्व कर्मों से रहित हो जाना ही मुक्ति है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए और सर्वकर्मों से रहित अवस्था (मुक्ति) बन्धपूर्वक ही होती है अत: बन्ध तत्त्व को भी वास्तविक स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वे मोक्ष तत्त्व और बन्ध तत्त्व दोनों ही अपने उत्पादक कारणों से युक्त हैं। अन्यथा, यदि उनको उत्पादक कारण सहित साधन नहीं माना जाता है तो कदाचित् का अयोग होगा अर्थात् जो अनादि काल से बँधा है, वह बँधा ही रहेगा और बंध के कारणों का अभाव होने से नवीन बन्ध नहीं होगा और न मुक्ति की प्राप्ति होगी। इसलिए साधन को भी तात्त्विक स्वीकार करना चाहिए / यह साधन (कारण) अविद्या का विलास मात्र है-ऐसा नहीं मानना चाहिए। इस प्रकार उमा स्वामी आचार्य ने तत्त्वाधिगम का उपाय साधन को कहा है जो समीचीन है-ऐसा जानना चाहिए। अथ अधिगम के उपायभूत अधिकरण का कथन करते हैं:_“जीव, घट आदि पदार्थों के वस्तुभूत आधार आधेय भाव का अयोग है, इसलिए जगत् में कोई किसी का किंचित् भी अधिकरण नहीं है, ऐसा कहना उचित नहीं है। __क्योंकि द्रव्य गुण आदि की स्पष्ट रूप से आधार आधेय गति जानी जा रही है अर्थात् द्रव्यों का आधार आधेय भाव प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है इसलिए उस अधिकरण का अभाव सर्वथा लोकप्रसिद्ध प्रतीतियों से बाधित है॥१७-१८॥