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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 331 कार्यकारणभावो द्विष्ठः संबंध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपित: सर्वथाप्यनवद्यत्वात् / संग्रहर्जुसूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचित्कश्चित्संबंधोन्यत्र कल्पनामात्रात् इति सर्वमविरुद्धं / न चात्र साध्यसाधनभावस्य व्यवहारनयादाश्रयणे कथंचिदसंभव इति सूक्तं साधनत्वमधिगम्यमर्थानां तदपलपंतोऽसदुक्तय एव इत्याह;मोक्षादिसाधनाभ्यासाभावासक्तेस्तदर्थिनाम् / तत्राविद्याविलासेष्टौ क्व मुक्तिः पारमार्थिकी॥१४॥ संविच्चेत्संविदेवेत्यदोषः सा यद्यसाधना / नित्या स्यादन्यथा सिद्धं साधनं परमार्थतः // 15 // इस प्रकार व्यवहार नय के आश्रय से (अपेक्षा से) संयोग, समवाय, विशेष्य-विशेषण, गुरुशिष्य, स्वामी-नौकर सम्बन्ध के समान, सर्वथा निर्दोष होने से तथा प्रतीति सिद्ध होने से दो में रहने वाला कार्य कारण भाव सम्बन्ध भी पारमार्थिक (वस्तुभूत) है कल्पना से आरोपित नहीं है परन्तु सम्पूर्ण पदार्थों को सद्रूप से ग्रहण करने वाले शुद्ध सत्ताग्राही संग्रह नय की अपेक्षा से और सूक्ष्म एक समय की पर्याय को ग्रहण करने वाले ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से कोई भी किसी का सम्बन्ध नहीं है-अर्थात् किसी का किसी के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है केवल कल्पना मात्र है। इस प्रकार नय विवक्षा से अनेकान्त में सम्बन्ध और असम्बन्ध विरुद्ध नहीं हैं। इस प्रकार साधन के प्रकरण में व्यवहार नय की अपेक्षा से कथंचित् साध्य साधन भाव असंभव नहीं है। इसलिए जानने योग्य जीवादि पदार्थों का और सम्यग्दर्शन आदि का साधन भी जानने योग्य है। अर्थात् साधन भी सम्यग्दर्शन आदि के जानने का उपाय है। जो सौगत मतानुयायी साधन का लोप करते हैं, साधन को नहीं मानते हैं, उनका वह कथन समीचीन नहीं है। प्रतीतिविरुद्ध है। उसी को आगे की कारिका में कहा गया है। - यदि व्यवहार नय से भी साध्य-साधन भाव का अपलाप (लोप) करेंगे तो मोक्षाभिलाषी जीवों के ज्ञानार्जन तपश्चरण आदि साधनों के अभ्यास के अभाव का प्रसंग आएगा। तथा, धनार्थी के धनोपार्जन के कारणों के अभ्यास के अभाव का प्रसंग आएगा। यदि दीक्षा ग्रहण करना, ज्ञानोपार्जन करना आदि मोक्ष के कारणों को अविद्या का विलास (चेष्टा) इष्ट किया जायेगा (माना जायेगा) तो मुक्ति पारमार्थिकी कैसे हो सकती है॥१४॥ - यदि मोक्ष के साधन को ज्ञान स्वरूप स्वीकार किया जाता है तो मोक्ष भी ज्ञान स्वरूप ही होगा। इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि कार्य-कारण के अनुसार ही होता है। यदि ज्ञान स्वरूप मोक्ष अकारण होता है तो मोक्ष के नित्यत्व का प्रसंग आएगा (क्योंकि जो अकारण होता है वह नित्य होता है जैसे आकाश)। यदि मुक्ति नित्य नहीं है, सकारण है तब तो साधन रूप अनुयोग परमार्थ सिद्ध हो जाता है अर्थात् साधन वास्तविक है, यह सिद्ध हो जाता है।॥१५॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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