________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 330 स्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तत्सिद्धिः / यदनंतरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति प्रतीतं / न चेदं सहकारित्वं क्वचिद्भावप्रत्यासत्तिः क्षेत्रप्रत्यासत्तिर्वा नियमाभावात्। निकटदेशस्यापि चक्षुषो रूपज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वदर्शनात् / संदंशकादेश्चासुवर्णस्वभावस्य सौवर्णकटकोत्पत्तौ यदि पुनर्यावत्क्षेत्रं यद्यस्योत्पत्तौ सहकारि दृष्टं यथाभावं च तत्तावत्क्षेत्रं तथाभावमेव सर्वत्रेति नियता क्षेत्राभावप्रत्यासत्तिः सहकारित्वं कार्ये निगद्यते तदा न दोषो विरोधाभावात् / तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे प्रश्न : एक द्रव्य की प्रत्यासत्ति का अभाव होने से सहकारी कारण के साथ कार्यों का कार्य-कारण भाव कैसे घटित हो सकता है ? अर्थात् जिसमें एक द्रव्यपना नहीं है, ऐसे गुरु शिष्य में, स्वामी भृत्य में स्वामी सम्बन्ध कार्य कारण भाव कैसे घटित हो सकेगा ? उत्तर : काल प्रत्यासत्ति नामक सम्बन्ध विशेष से सहकारी कारण और कार्यों में उस कार्य कारण भाव सम्बन्ध की कार्य सिद्धि होती है जिससे अव्यवहित उत्तर काल में नियम से जो अवश्य उत्पन्न होता है, वह उसका सहकारी कारण है और शेष दूसरा कार्य है। इस प्रकार कालिक सम्बन्ध सबको प्रतीत होता है अर्थात् सहकारी कारणों के साथ कार्य की काल प्रत्यासत्ति है। कहीं पर भी क्षेत्र प्रत्यासत्ति और भाव प्रत्यासत्ति को सहकारी कारण नहीं समझना चाहिए। क्योंकि क्षेत्र प्रत्यासत्ति और भाव प्रत्यासत्ति में सहकारी कारणत्व के नियम का अभाव है क्योंकि निकट देशवाली चक्षु को भी रूपज्ञान की उत्पत्ति में सहकारीपना देखा जाता है अर्थात् शरीर के एक देश में चक्षु है और सम्पूर्ण आत्मा में रूप ज्ञान होता है। अथवा चक्षु तो शरीर में है और दूसरे क्षेत्र में स्थित वस्तु के जानने में सहकारी होती है। अथवा संडासी आदि स्वर्ण स्वभाव वाले स्वर्ण के कड़े की उत्पत्ति में सहकारी कारण होते हैं अर्थात् संडासी और स्वर्ण के भी एकक्षेत्रपना नहीं है। तथा कार्य-कारण सम्बन्ध में भाव प्रत्यासत्ति भी कारण नहीं है क्योंकि चक्षु पौद्गलिक है और रूप ज्ञान चेतन का परिणाम है; कड़ा सोने का है और संडासी लोहे की है अतः इनमें भाविक सम्बन्ध और क्षेत्र का सम्बन्ध न मान कर कालिक सम्बन्ध ही मानना चाहिए। अथवा यदि जितना क्षेत्र जिस प्रकार के स्वभाव का अतिक्रमण न करके जो कारण जिस कार्य की उत्पत्ति में सहकारी कारण होता हुआ देखा जाता है, वह कारण उतने क्षेत्र और उस प्रकार के परिणाम के अनुसार कार्यकारी है। इस प्रकार भाव प्रत्यासत्ति और क्षेत्र प्रत्यासत्ति भी सर्वत्र कार्यकारी है अत: क्षेत्रप्रत्यासत्ति और भाव प्रत्यासत्ति भी नियत हैं। उसमें विरोध का अभाव होने से दोषों का अभाव भावार्थ : जितने क्षेत्र में कार्य होता है यदि उस क्षेत्र को कारण मानते हैं तो कार्य में क्षेत्र प्रत्यासत्ति कारण है परन्तु क्षेत्र में उपादान-उपादेय भाव नहीं हो सकता। उसी प्रकार भाव परिणाम से अविभागी प्रतिच्छेदों का यथासंभव संख्या, परिणाम, जाति आदि की समानता से भाव प्रत्यासत्ति को भी कारण माना जा सकता है। वास्तव में है नहीं।